________________
श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ मोक्षाभिलाषा क्रमशः कम हो जाती है। कषाय वह है जिससे समता, शान्ति और सन्तुलन नष्ट हो जाता है। कषाय एक प्रकार का प्रकम्पन है, उत्ताप है और आवत है, जो चैतन्योपयोग में विमोक्ष उत्पन्न करता रहता है। क्रोध-मानमाया-लोभ इन चारों को एक शब्द में कहा जाये तो वह कषाय है। कषाय मन की मादकता है। कषाय की तुलना आवर्त से की गयी है पर क्रोध के आवर्त से मान का आवर्त भिन्न है और मान के आवर्त से माया का आवर्त भिन्न है। क्रोध का आवर्त खरावर्त है। खरावर्त सागर में होने वाले तीक्ष्ण आवर्त के सदृश है। मान का आवर्त अन्नतावर्त है। इस आवर्त से उत्प्रेरित मनोदशा पहाड़ की चोटी को अपने बहाव में उड़ा ले जाने वाली तेज पवन के सदृश है। अभिमानी दूसरों को मिटाकर अपने-आपके अस्तित्व का अनुभव करता है। माया गूढावर्त के सदृश है। मायावी का मन घूमावदार होता है। इसके विचार गूढ होते हैं, वह विचारों को छूपाये रखता है। लोभ अभिषावावर्त है, लोभी का मानस किसी एक केन्द्र को मानकर उसके चारों ओर घूमता है, जैसे चील आदि पक्षी माँस के चारों ओर घूमते हैं उसके प्राप्त नहीं होने तक उनके मन में शान्ति नहीं होती। इसी प्रकार कषाय चक्राकार है जो चेतना को घुमाती रहती है। ... प्रस्तुत पद में क्रोध-मान-माया-लोभ ये चारों कषाय चौबीस दण्डकों में बताये गये हैं। क्षेत्र, वस्तु, शरीर और उपधि को लेकर सम्पूर्ण सांसारिक जीवों में कषाय उत्पन्न होता है। कितनी बार जीव को कषाय का निमित्त मिलता है और कितनी बार बिना निमित्त के भी कषाय उत्पन्न हो जाता है। .... चारों ही कषायों के तरतमता की दृष्टि से अनन्त स्तर होते हैं, तथापि आत्मविकास के घात की दृष्टि से उनमें से प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन। अनन्तानुबंधी कषाय के उदयकाल में सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में अणुव्रत की योग्यता, प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती और संज्वलन कषाय के उदयकाल में . वीतरागता उत्पन्न नहीं होती। ये चारों प्रकार के कषाय उत्तरोत्तर, मंदमंदतर होते हैं, साथ ही आभोगनिवर्तित, और
अनाभोगनिर्वर्तित, उपशान्त और अनुपशान्त, इस प्रकार के भेद भी किये गये हैं। आभोगनिर्वर्तित कषाय कारण उपस्थित होने पर होता है तथा जो बिना कारण होता है वह अनाभोगनिर्वर्तित कहलाता है। - कर्मबंधन का कारण मुख्य रूप से कषाय है। तीनों कालों में आठों कर्मप्रकृतियों के चयन के स्थान और प्रकार, २५ दंडक के जीवों में कषाय को ही माना गया है। साथ ही उपचय, बंध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा में चारों कषाय ही मुख्य रूप से कारण बताये हैं। इन्द्रिय : एक चिन्तन . पन्द्रहवें पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में दो उद्देशकों में चिंतन किया गया है। प्राणी और अप्राणी में भेदरेखा खींचने वाला चिह्न इन्द्रिय है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में इन्द्रिय शब्द की परिभाषा करते हुए लिखा है-परम् ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले आत्मा को इन्द्र और उस इन्द्र के लिंग या चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में निमित्त होता है वह इन्द्रिय है अथवा जो इन्द्रियातीत आत्मा के सद्भाव की सिद्धि का हेतु है वह इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र अर्थात् नामकर्म के द्वारा निर्मित स्पर्शन आदि को इन्द्रिय कहा है। तत्त्वार्थभाष्य', तत्त्वार्थवार्तिक', आवश्यकनियुक्ति आदि अनेक ग्रन्थों में इससे मिलती-जुलती परिभाषाएँ हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा १. अत्ररुचिस्तम्भनकृत् कषायः।-स्थानांग टीका; २. इन्दतीति इन्द्र आत्मा, तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान्
गृहीतुमसमर्थस्य तदर्थोपलब्धिनिमित्तं लिङ्गं तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम्। आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम्। अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते, तेन सृष्टमिन्द्रियमिति। -सर्वार्थसिद्धि १-१४; ३. तत्त्वार्थभाष्य २-१५; ४. तत्त्वार्थवार्तिक २।१५।१-२; ५. आवश्यकनियुक्ति हरिभद्रीया वृत्ति ९१८, पृष्ठ ३९८
। 50