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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ चौबीस दंडकों में कितने कितने शरीर हैं, इस पर चिंतन कर यह बताया है कि औदारिक से वैक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं। संक्षेप में औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रसादि धातुमय शरीर है। यह शरीर मनुष्य और तिर्यञ्चों में होता है। वैक्रिय शरीर वह है जो विविध रूप करने में समर्थ हो, यह शरीर नैरयिक तथा देवों का होता है। वैक्रियलब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकायों में भी होता है । आहारक शरीर वह है जो आहारक नामक लब्धिविशेष से निष्पन्न होता है । तैजस शरीर वह है जिससे तेजोलब्धि प्राप्त हो, जिससे उपघात या अनुग्रह किया जा सके, जिससे दीप्ति और पाचन हो । कार्मण शरीर वह है जो कर्मसमूह से निष्पन्न है, दूसरे शब्दों में कर्मविकार को कार्मण शरीर कह सकते हैं। तैजस और कार्मण शरीर सभी सांसारिक जीवों में होता है। भावपरिणमन : एक चिन्तन तेरहवें परिणामपद में परिणाम के संबंध में चिंतन है। भारतीय दर्शनों में सांख्य आदि दर्शन परिणामवादी हैं तो न्याय आदि कुछ दर्शन परिणामवाद को स्वीकार नहीं करते। जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी का अभेद स्वीकार किया है वे परिणामवादी हैं और जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद माना है, वे अपरिणामवादी हैं। नित्यता के संबंध में भारतीय दर्शनों में तीन प्रकार के विचार हैं- सांख्य, जैन और वेदान्तियों में रामानुज। इन तीनों ने परिणामी - नित्यता स्वीकार की है। पर सांख्यदर्शन ने प्रकृति में परिणामीनित्यता मानी है, पुरुष में कूटस्थनित्यता स्वीकार की है।' नैयायिकों ने सभी प्रकार की नित्य वस्तुओं में कूटस्थनित्यता मानी है। धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद स्वीकार करने के कारण परिणामीनित्यता के सिद्धान्त को उन्होंने मान्य नहीं किया। बौद्धों ने क्षणिकवाद स्वीकार किया है। क्षणिकवाद स्वीकार करने पर भी उन्होंने पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। उन्होंने सन्तति-नित्यता के रूप के नित्यता का तृतीय प्रकार स्वीकार किया है। • प्रज्ञापना के प्रस्तुत पद में जैनदृष्टि से जीव और अजीवों दोनों के परिणाम प्रतिपादित किये हैं। जिससे स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन मान्य पुरुषकूटस्थवाद जैनों को अमान्य है। पहले जीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों को प्रतिपादितकर नरक आदि चौबीस दण्डकों में परिणामों का विचार किया गया है। उसके पश्चात् अजीव के परिणामों की परिगणना है। यहाँ पर विशेष रूप से ध्यान देने की बात यह है कि अजीव में केवल पुद्गल के परिणामों की ही चर्चा की गयी है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव द्रव्यों के परिणामों की चर्चा नहीं है। आगमप्रभावक पुण्यविजयजी महाराज व पंडित दलसुख मालवणिया आदि ने प्रज्ञापना (श्री महावीर विद्यालय, बंबई प्रकाशन) की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा की है, वह चर्चा ज्ञानवर्द्धक है, अतः हम जिज्ञासुओं को उसके पढ़ने का सूचन करते हैं। यहाँ पर परिणाम का अर्थ पर्याय अथवा भावों का परिणमन है । कषाय : एक चिन्तन चौदहवें पद का नाम कषायपद है। कषाय जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जो जीव के शुद्धोपयोग में मलीनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है। कष का अर्थ है कुरेदना, खोदना और कृषि करना। जिससे कर्मों की कृषि लहलहाती हो वह कषाय है। कषाय के पकते ही सुख और दुःख रूपी फल निकल आते हैं। कषाय शब्द कषैले रस का भी द्योतक है। जिस प्रकार कषाय रसप्रधान वस्तु के सेवन से अन्नरुचि न्यून होती है वैसे ही कषायप्रधान जीवों में १. द्वयी चेयं नित्यता कूटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य । परिणामिनित्यता गुणानाम् । - पातञ्जलभाष्य ४, ३३ २. प्रज्ञापना पद १४ टीका 49
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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