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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ रूप में प्रतिभासित होता है। पर यह चिंतन प्रमाणबाधित है। हम पूर्व में शब्द की पौद्गलिकता का समर्थन कर चुके हैं। आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के माध्यम से भी यह सत्य-तथ्य उजागर हो चुका है। यन्त्र स्वयं पुद्गल रूप है इसीलिए वह पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है। पौद्गलिक वस्तु ही पौद्गलिक वस्तु को पकड़ सकती है। भाषा के पुद्गल जब भाषा के रूप में बाहर निकलते हैं तब सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। लोक का आकार वज्राकार है इसलिए भाषा का आकार भी वज्राकार बतलाया गया है। लोक के आगे भाषा के पदगल नहीं जाते. क्योंकि गमन क्रिया में सहायभुय धर्मास्तिकाय लोक में ही है। पुद्गल, परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध रूप होते हैं। जो स्कन्ध अनन्तप्रदेशी हैं उन्हीं का ग्रहण भाषा के लिए उपयोगी होता है। क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात प्रदेशों में स्थित स्कन्ध, काल की दृष्टि से एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति वाले होते हैं। रूप-रस-गंध और स्पर्श की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समान नहीं होते परन्तु सभी रूपादि परिणाम वाले तो होते ही हैं। स्पर्श की दृष्टि से चार स्पर्श वाले पुद्गलों का ही ग्रहण किया जाता है। आत्मा आकाश के जितने प्रदेशों का अवगाहनकर रहता है, उतने ही प्रदेशों में रहे हुए भाषा के पुद्गलों को वह ग्रहण करता है। प्रस्तुत पद में भाषा के भेदों का अनेक दृष्टियों से वर्णन किया गया है। भाषा के पर्याय और अपर्याप्त ये दो 'भेद हैं। पर्याप्त के सत्यभाषा और मृषाभाषा दो भेद हैं तथा सत्यभाषा के जनपदसत्य, २सम्मतसत्य, ३स्थापनासत्य, नामसत्य, ५रूपसत्य, ६प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, ८भावसत्य, योगसत्य, १०औपम्यसत्य, ये दस भेद हैं। असत्य भाषा बोलने के अनेक कारण हैं। असत्यभाषा के दस भेद हैं-१क्रोधनिःसृत, २माननिःसृत, ३मायानिःसृत, लोभनिःसृत, ५प्रेमनिःसृत, द्वेषनिःसृत, "हास्यनिःसृत, ८भयनिःसृत, आख्यानिकानिःसृत, १°उपघातनिःसृत। ___ अपर्याप्तक भाषा के सत्यामृषा और असत्यामृषा ये दो प्रकार हैं। उनमें सत्यामृषा के दस और असत्यामृषा के बारह भेद बताये गये हैं। सत्यामृषा भाषा वह है जो अर्द्ध सत्य हो और असत्यामृषा वह है जिसमें सत्य और मिथ्या का व्यवहार नहीं होता। अन्य दृष्टि से लिंग, संख्या, काल, वचन आदि की दृष्टि से भाषा के सोलह प्रकार बताये शरीर : एक चिन्तन - बारहवें पदं में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिंतन किया गया है। शरीर के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच भेद हैं।१ उपनिषदों में आत्मा के पांच कोषों की चर्चा है-१. अन्नमयकोष (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है), २. प्राणमयकोष (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व), ३. मनोमयकोष (मन की संकल्प-विकल्पात्मक क्रिया), ४. विज्ञानमयकोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया), ५. आनन्दमयकोष (आनन्द की स्थिति)। इन पांच कोषों में केवल अन्नमयकोष के साथ औदारिक शरीर की तुलना की जा सकती है। औदारिक आदि शरीर स्थूल हैं तो कार्मण शरीर सूक्ष्म शरीर है। कार्मणशरीर के कारण ही स्थूल शरीर की उत्पत्ति होती है। नैयायिकों ने कार्मणशरीर को अव्यक्त शरीर भी कहा है। सांख्य प्रभृति दर्शनों में अव्यक्त सूक्ष्म और लिंग शरीर जिन्हें माना गया है उनकी तुलना कार्मणशरीर के साथ की जा सकती है। १. भगवती सूत्र १७।१ सूत्र ५९२; २. (क) पंचदशी ३. १११ (ख) हिन्दुधर्मकोश -डॉ. राजबलि पाण्डेय; ३. तैत्तिरीय-उपनिषद्, भृगुवल्ली , बेलवलकर और रानाडे,-History of Indian Philosophy, 250; ४. द्वे शरीरस्य प्रकृती व्यक्ता च अव्यक्ता च। तत्र अव्यक्तायाः कर्मसमाख्यातायाः प्रकृतेरुपभोगात् प्रक्षयः। प्रक्षीणे च कर्मणि विद्यमानाति भूतानि न शरीरमुत्पादयन्ति इति उपपन्नोऽपवर्गः।-न्यायवार्तिक ३।२।६८१; ५. सांख्यकारिका ३९-४०, बेलवलकर और रानाडे-History of Indian Philosophy, 358, 430 & 370 48
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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