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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ वक्ता बोलना चाहता है तो उन पुद्गलों को ग्रहण करता है, वे पुद्गल शब्दरूप में परिणत हो जाते हैं और बोलते हुए एक समय में लोकान्त तक पहुँच जाते हैं। उसकी गति का वेग तीव्रतर होता है। आकाश द्रव्य के प्रदेशों की श्रेणियाँ हैं। वे श्रेणियाँ पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे इस प्रकार छहों दिशाओं में विद्यमान हैं। जब वक्ता भाषा का प्रयोग करता है तो शब्द उन श्रेणियों से प्रसरित होता है। चार समय जितने सूक्ष्म काल में शब्द सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जाता है। यदि श्रोता भाषा की समश्रेणी में अवस्थित होता है तो वक्ता द्वारा जो भाषा बोली जाती है या भेरी आदि वाद्य का जो शब्द होता है उसे वह मिश्र रूप में सुनता है। यदि श्रोता विश्रेणी में स्थित है तो वासित शब्द सुनता है।
श्रोता वक्ता द्वारा बोले हुए शब्द ही नहीं सुनता परन्तु बोले हुए शब्दद्रव्य तथा उन शब्दद्रव्यों से वासित हुए बीच के शब्दद्रव्य मिलकर मिश्रशब्द होते हैं। उन्हीं मिश्रशब्दद्रव्यों को समश्रेणी स्थित श्रोता श्रवण करता है। विश्रेणी स्थित श्रोता मिश्रशब्द को भी श्रवण नहीं करता। वह केवल उच्चारित मूल शब्दों द्वारा वासित शब्दों को ही श्रवण करता है । वासित शब्द का अर्थ है वक्ता द्वारा शब्द रूप से त्यागे हुए द्रव्यों से अथवा भेरी आदि की ध्वनि से, मध्य में स्थित शब्दवर्गणा के पुद्गल शब्द रूप में परिणत हो जाते हैं। शब्द श्रेणी के अनुसार ही फैलता है, वह विश्रेणी में नहीं जाता। शब्दद्रव्य इतना सूक्ष्म है कि दीवाल प्रभृति का प्रतिघात भी उसे विश्रेणी में नहीं ले जा सकता।
जिज्ञासा होती है कि शब्द एक समय में श्रेणी के अनुसार लोकान्त तक पहुँच जाता है। द्वितीय समय में विदिशा में भी जाता है और चार समय में समस्त लोक में फैल जाता है। ऐसी स्थिति में जब श्रोता विदिशा में होता है तो मिश्रशब्द श्रवण क्यों नहीं करता ? उत्तर यह है कि लोकान्त भाषा को पहुँचने में केवल एक समय लगता है और दूसरे समय में भाषा, भाषा नहीं रहती। क्योंकि कहा गया है, जिस समय में वह भाषा बोली जाती हो उसी समय में वह भाषा कहलाती है, दूसरे समय भाषा अभाषा हो जाती है। इसलिए विदिशा में जो शब्द सुनायी पड़ता है वह दो, तीन, चार आदि समयवर्ती हो जाता है जिससे वह श्राव्य शक्ति से शून्य हो जाता है। वह मूल शब्द अन्य शब्दवर्गणा के पुद्गलों को भाषारूप में परिणत कर देता है। इसलिए वह वासित शब्द है और वासित शब्द विदिशा में सुनायी नहीं देते। उदाहरण के रूप में तालाब में जहाँ पर पत्थर गिरता है उसके चारों ओर एक लहर व्याप्त हो जाती है। वह लहर अन्य लहरों को उत्पन्न करती हुई जलाशय के अन्त तक पहुँच जाती है। उसी तरह वक्ता द्वारा प्रयुक्त भाषाद्रव्य आगे बढ़ता हुआ आकाश में अवस्थित अन्यान्य भाषा योग्य द्रव्यों को भाषा रूप में परिणत करता हुआ लोक के अन्त तक जाता है। लोक के अन्त तक पहुँचकर उसमें जो श्रव्यशक्ति है वह समाप्त हो जाती है। उससे अन्यान्य भाषावर्गणा के पुद्गलों में शब्दरूप परिणति समुत्पन्न होती है और वे शब्द मूल और बीच के शब्दों द्वारा सम्प्रेरित होकर गतिमान् होते हैं। इस तरह चार समय में सम्पूर्ण लोकाकाश उन शब्दों से व्याप्त हो जाता है।
काययोग के द्वारा जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है और वचनयोग के द्वारा उनका परित्याग करता है। ग्रहण करने और त्याग करने का क्रम चलता रहता है। कभी कभी जीव प्रतिपल प्रतिक्षण भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है और साथ ही कभी-कभी प्रतिपल प्रतिक्षण भाषाद्रव्य का त्याग करता है। प्रथम समय में ग्रहण किये हुए भाषाद्रव्यों को द्वितीय समय में त्याग करता है और द्वितीय समय 'ग्रहण किये हुए द्रव्य तृतीय समय में त्याग करता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर वाला जीव ही भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है।
कितने ही चिन्तकों का मत है कि ब्रह्म शब्दात्मक है । समस्त विराट् विश्व शब्दात्मक है, शब्द के अतिरिक्त घट-पट आदि बाह्य पदार्थों एवं ज्ञान प्रभृति आन्तरिक पदार्थों की सत्ता का अभाव है। शब्द ही विभिन्न वस्तुओं के
१. भाष्यमाणैव भाषा, भाषासमयानन्तरं भाषाऽभाषा । ; २. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा. ३५३
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