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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का आवरण होने के कारण सीधा आत्मा से ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और वह माध्यम इन्द्रिय है। अतएव जिसकी सहायता से ज्ञान लाभ हो सके वह इन्द्रिय है। इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। इनके विषय भी पांच हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द। इसीलिए इन्द्रिय को प्रतिनियत-अर्थग्राही कहा जाता है।
प्रत्येक इन्द्रिय, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय रूप से दो-दो प्रकार की है। पुद्गल की आकृतिविशेष द्रव्येन्द्रिय है और आत्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण ये दो भेद हैं। इन्द्रियों की विशेष आकृतियाँ निर्वृत्ति-द्रव्येन्द्रिय हैं। निर्वृत्ति-द्रव्येन्द्रिय की बाह्य और आभ्यन्तरिक पौद्गलिक शक्ति है, जिसके अभाव में आकृति के होने पर भी ज्ञान होना संभव नहीं है; वह उपकरण द्रव्येन्द्रिय है। भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार की है। ज्ञानावरणकर्म आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली जो आत्मिक शक्तिविशेष है, वह लब्धि है। लब्धि प्राप्त होने पर आत्मा एक विशेष प्रकार का व्यापार करती है, वह व्यापार उपयोग है।
प्रथम उद्देशक में चौबीस द्वार और दूसरे में बारह द्वार हैं। इन्द्रियों की चर्चा चौबीस दण्डकों में की गयी है। जीवों में इन्द्रियों के द्वारा अवग्रहण-परिच्छेद, अवाय, ईहा और अवग्रह-अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार से चौबीस दण्डकों में निरूपण किया गया है। चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है। अर्थावग्रह छः प्रकार का है। वह पांच इन्द्रिय और छठे नोइन्द्रिय-मन से होता है। इस प्रकार इन्द्रियों के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय दो भेद किये हैं। द्रव्येन्द्रिय पुद्गलजन्य होने से जड़ रूप है और भावेन्द्रिय ज्ञान रूप है। इसलिए वह चेतना शक्ति का पर्याय है। द्रव्येन्द्रिय अंगोपांग और निर्माण नामकर्म के उदय से प्राप्त है। इन्द्रियों के आकार का नाम निर्वृत्ति है। वह निर्वृत्ति भी बाह्य और आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार की है। इन्द्रिय के बाह्य आकार को बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर आकृति को आभ्यन्तरनिर्वृत्ति कहते हैं। बाह्य भाग तलवार के सदृश है और आभ्यन्तर भाग तलवार की तेज धार के सदृश है जो बहुत ही स्वच्छ परमाणुओं से निर्मित है। प्रज्ञापना की टीका में आभ्यन्तर निवृत्ति का स्वरूप पुद्गलमय बताया है तो आचारांग-वृत्ति में उसका स्वरूप चेतनामय बताया है।
यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि त्वचा की आकृति विभिन्न प्रकार की होती है किन्तु उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में पृथक्ता नहीं है। प्राणी की त्वचा का जिस प्रकार का बाह्य आकार होता है वैसा ही आभ्यन्तर आकार भी होता है, पर अन्य चार इन्द्रियों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। उन इन्द्रियों का बाह्य आकार और आभ्यन्तर आकार अलगअलग है। जैसे-कान की आभ्यन्तर आकृति कदम्बपुष्प के सदृश, आंख की आभ्यन्तर आकृति मसूर के दाने के सदृश, नाक की आभ्यन्तर आकृति अतिमुक्तक के फूल के सदृश तथा जीभ की आकृति छूरे के समान होती है। पर बाह्याकार सभी में पृथक्-पृथक् दृग्गोचर होते हैं। मनुष्य, हाथी, घोड़े, पक्षी आदि के कान, आंख, नाक, जीभ आदि को देख सकते हैं।
आभ्यन्तरनिर्वृत्ति की विषयग्रहणशक्ति उपकरणेन्द्रिय हैं। तत्त्वार्थसूत्र', विशेषावयशकभाष्य', लोकप्रकाश प्रभृति ग्रन्थों में इन्द्रियों पर विशेषरूप से विचार किया गया है। प्रज्ञापना में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तन, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियोपयोग आदि द्वारों से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की चौबीस दण्डकों में विचारणा की गयी है। १. प्रमाणमीमांसा १।२।२१-२३; २. सर्वार्थसिद्धि २/१६/१७९; ३. निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्। -तत्त्वार्थसूत्र २/१७; ४. लब्ध्युपयोगी
भावेन्द्रियम्।-तत्त्वार्थसूत्र २/१८; ५. प्रज्ञापनासूत्र, इन्द्रियपद, टीका पृष्ठ २९४/१; ६. आचारांगवृत्ति, पृष्ठ १०४; ५. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र १७/१८ तथा विभिन्न वृत्तियां; ८. विशेषाव्यशकभाष्य, गाथा २९९३-३००३, ९. लोकप्रकाश, सर्ग-३, श्लोक ४६४ से आगे
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