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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ हैं पर जाति की दृष्टि से एक है। उपर्युक्त चर्चा में जो भेद प्रतिपादित किये गये हैं, वे भौगोलिक और गुणों की दृष्टि से हैं। जीवों का निवासस्थान संसारी और सिद्ध के भेद और प्रभेद की चर्चा करने के पश्चात् उन जीवों के निवासस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। इस चिन्तन का मूल कारण यह है कि आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में उपनिषदों में अनेक कल्पनाएँ हैं। इन सभी कल्पनाओं के अन्त में ऋषियों की विचारधारा आत्मा को व्यापक मानने की ओर विशेष रही है। प्रायः सभी वैदिक दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। हाँ, आचार्य शंकर और आचार्य रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार इसमें अपवाद हैं। उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक और जीवात्मा को अणु-परिमाण माना है। बृहदारण्यक उपनिषद् में आत्मा को चावल या जौ के दाने के परिमाण माना है। कठोपनिषद् में आत्मा को 'अंगुष्ठपरिमाण' का लिखा है। तो छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा को 'बालिश्त' परिमाण कहा है। मैत्त्र्युपनिषद् में आत्मा को अणु की तरह सूक्ष्म माना है।' कठोपनिषद्', छान्दोग्योपनिषद्', और श्वेताश्वेतरोपनिषद्' में आत्मा को अणु से अणु और महान् से महान् भी कहा है। सांख्यदर्शन में आत्मा को कूटस्थ नित्य माना है अर्थात् आत्मा में किसी भी प्रकार का परिणाम या विकार नहीं होता है। संसार और मोक्ष आत्मा का नहीं प्रकृति का है।' सुख-दुःख-ज्ञान, ये आत्मा के नहीं किन्तु प्रकृति के धर्म हैं।° इस तरह वह आत्मा को सर्वथा अपरिणामी मानता है । कर्तृत्व न होने पर भी भोग आत्मा में ही माना है।" इस भोग के आधार पर आत्मा में परिणाम की संभावना है, इसलिए कितने ही सांख्य भोग को आत्मा का धर्म नहीं मानते। १२ उन्होंने आत्मा को कूटस्थ होने के मन्तव्य की रक्षा की है। कठोपनिषद् आदि में भी आत्मा को कूटस्थ माना है। १३ जैनदर्शन में आत्मा को सर्वव्यापक नहीं माना है, वह शरीर - प्रमाण - व्यापी है। उसमें संकोच और विकास दोनों गुण हैं। आत्मा को कूटस्थ नित्य भी नहीं माना है किन्तु परिणामी नित्य माना गया है। इस विराट् विश्व में वह विविध पर्यायों के रूप में जन्म ग्रहण करता है और नियत स्थान पर ही वह आत्मा शरीर धारण करता है। कौन सा जीव किस स्थान में है, इस प्रश्न पर चिन्तन करना आवश्यक हो गया तो प्रज्ञापना के द्वितीय पद में स्थान के सम्बन्ध में चिंतन किया है। स्थान भी दो प्रकार का है - एक स्थायी, दूसरा प्रासंगिक । जन्म ग्रहण करने के पश्चात् मृत्युपर्यन्त जीव जिस स्थान पर रहता है, वह स्थायी स्थान है, स्थायी स्थान को आगमकार ने स्व-स्थान कहा है। प्रासंगिक निवास स्थान उपपात और समुद्घात के रूप में दो प्रकार का है। जैनदृष्टि से जीव की आयु पूर्ण होने पर वह नये स्थान पर जन्म ग्रहण करता है। एक जीव देवायु को पूर्ण कर मानव बनने वाला है; वह जीव देवस्थान से चलकर मानवलोक में आता है। बीच की जो उसकी यात्रा है, वह यात्रा स्वस्थान नहीं है; वह तो प्रासंगिक यात्रा है, उस यात्रा को उपपातस्थान कहा गया है। दूसरा प्रासंगिक स्थान समुद्घात है। वेदना, मृत्यु, विक्रिया प्रभृति विशिष्ट प्रसंगों पर जीव के प्रदेशों का जो विस्तार होता है वह समुद्घात है। समुद्घात के समय आत्मप्रदेश शरीरस्थान में रहते हुए भी किसी न किसी स्थान में बाहर भी समुद्घात-काल पर्यन्त रहते हैं। इसलिए समुद्घात की दृष्टि से जीव के प्रासंगिक निवास स्थान पर विचार किया गया है। इस तरह १. (क) मुण्डक-उपनिषद् १।११६ (ख) वैशेषिकसूत्र ७।१।१२ (ग) न्यायमंजरी, पृष्ठ ४६८ (विजय) (घ) प्रकरणपंजिका, पृष्ठ १५८ २. बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/६/१; ३. कठोपनिषद् २।२।१२; ४. छान्दोग्योपनिषद् ५।१८ १ ५. मैत्र्युपनिषद् ६ । ३८; ६. कठोपनिषद् १।२।२० ; ७. छान्दोग्योपनिषद् ३।१४।३; ८. श्वेताश्वेतरोपनिषद् ३।२०; ९. सांख्यकारिका ६२; १०. सांख्यकारिका ११; ११. सांख्यकारिका १७; १२. सांख्यतत्त्वकौमुदी १७; १३. कठोपनिषद् १२।१८ १९ 39
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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