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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ द्वितीय पद में स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान-तीनों प्रकार के स्थानों के सम्बन्ध में चिंतन किया है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रथम पद में निर्दिष्ट जीव भेदों में से एकेन्द्रिय जैसे कई सामान्य भेदों के स्थानों पर चिंतन नहीं है, केवल मुख्य मुख्य भेद-प्रभेदों के स्थानों पर ही विचार किया है।
संसारी जीवों के लिए उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की दृष्टि से चिंतन किया गया है, पर सिद्धों के लिए स्वस्थान का ही चिंतन किया गया है। सिद्धों का उपपात नहीं होता। अन्य संसारी जीव के नाम, गोत्र, आयु आदि कर्मों का उदय होता है जिससे वे एक गति से दूसरी गति में जाते हैं। सिद्ध कर्मों से मुक्त होते हैं। कर्मों के अभाव के कारण वे सिद्ध रूप में जन्म नहीं लेते। जैनदृष्टि से जो जीव लोकान्त तक जाते हैं वे आकाशप्रदेशों को स्पर्श नहीं करते, इसलिए सिद्धों का उपपातस्थान नहीं है। कर्मयुक्त जीव ही समुद्घात करते हैं, सिद्ध नहीं। इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में सिद्धों के स्वस्थान पर ही चिन्तन किया गया है। ___एकेन्द्रिय जाति के जीव समग्रलोक में व्याप्त हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीव लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। नारक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देव के लिए पृथक्-पृथक् स्थानों का निर्देश किया गया है और सिद्ध लोक के अग्रभाग में अवस्थित हैं। यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि जब छद्स्थ मनुष्य समुद्घात करता है तो वह लोक के असंख्यातवें भाग को स्पर्श करता है और जब केवली समुद्घात करते हैं तो वह सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करते हैं। जब मनुष्य के आत्मप्रदेश सम्पूर्ण लोक में विस्तृत हो जाते हैं, उस समय उसकी आत्मा लोकव्याप्त हो जाती है। __अजीवों के स्थान के सम्बन्ध में विचार नहीं किया गया। ऐसा ज्ञात होता है-जैसे जीवों के प्रभेदों में अमुक निश्चित स्थान की कल्पना कर सकते हैं, वैसे पुद्गल के सम्बन्ध में नहीं। परमाणु व स्कन्ध समग्र लोकाकाश में हैं किन्तु उनका स्थान निश्चित नहीं है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों समग्र लोकव्यापी हैं, अतः उनकी चर्चा यहां नहीं की गयी है। संख्या की दृष्टि से चिन्तन
तीसरे पद में जीव और अजीव तत्त्वों का संख्या की दृष्टि से विचार किया गया है। भगवान् महावीर के समय और तत्पश्चात् भी तत्त्वों का संख्या-विचार महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। एक ओर उपनिषदों के मत से सम्पूर्ण विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के मत से जीव अनेक हैं किन्तु अजीव एक है। बौद्धों की मान्यता अनेक चित्त और अनेक रूप की है। इस दृष्टि से जैनमत का स्पष्टीकरण आवश्यक था। वह यहाँ पर किया गया है। मुख्य रूप से तारतम्य का निरूपण अर्थात् कौन किससे कम या अधिक है, इसकी विचारणा इस पद में की गयी है। प्रथम, दिशा की अपेक्षा से किस दिशा में जीव अधिक और किस दिशा में कम, इसी तरह जीवों के भेद-प्रभेद की न्यूनाधिकता का भी दिशा की अपेक्षा से विचार किया गया है। इसी प्रकार गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से जीवों के जो-जो प्रकार होते हैं, उनमें संख्या का विचार करके अन्त में समग्र जीवों के जो विविध प्रकार होते हैं, उन समग्र जीवों की न्यूनाधिक संख्या का निर्देश किया गया है।
इसमें केवल जीवों का ही नहीं किन्तु धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों की भी परस्पर संख्या का तारतम्य निरूपण किया गया है। वह तारतम्य द्रव्यदृष्टि और प्रदेशदृष्टि से बताया गया है। प्रारम्भ में दिशा को मुख्य करके संख्याविचार है और बाद में ऊर्ध्व, अधो और तिर्यग् लोक की दृष्टि से समग्र जीवों के भेदों का संख्यागत विचार है। जीवों १. प्रज्ञापना मलयगिरिवृत्ति, पत्रांक १०८; २. द्रव्यसंग्रह टीका, ब्रह्मदेवकृत, १०
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