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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ मंगलाचरण : एक चिन्तन
- मंगलाचरण आगमयुग में नहीं था। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही आगम का प्रारम्भ करते थे। आगम स्वयं मंगलस्वरूप होने के कारण उसमें मंगलवाक्य अनिवार्य नहीं माना गया। आचार्य वीरसेन और आचार्य जिनसेन ने कषायपाहुड की जयधवला टीका में लिखा है-आगम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है। क्योंकि परमागम में ध्यान को केन्द्रित करने से नियम से मंगल का फल सम्प्राप्त हो जाता है। यही कारण है कि आचार्य गुणधर ने अपने कषायपाहुड ग्रन्थ में मंगलाचरण नहीं किया। ___ द्वादशांगी में केवल भगवतीसूत्र को छोड़कर अन्य किसी भी आगम के प्रारम्भ में मंगलवाक्य नहीं वैसे ही उपांग में प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलगाथायें आयी है। उन गाथाओं में सर्वप्रथम सिद्ध को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार किया है। प्रज्ञापना की प्राचीनतम जितनी भी हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं, उन सभी प्रतियों में पंचनमस्कार महामंत्र है। प्रज्ञापना के टीकाकार आचार्य श्री हरिभद्रजी और आचार्य श्री मलयगिरिजी ने पंचनमस्कार महामंत्र की व्याख्या नहीं की है। इस कारण आगमप्रभावक पुण्यविजयजी म., पं. दलसुखभाई मालवणिया आदि का अभिमत है कि प्रज्ञापना के निर्माण के समय नमस्कारमहामंत्र उसमें नहीं था। किन्तु लिपिकर्ताओं ने प्रारम्भ में उसे संस्थापित किया हो। षट्खण्डागम में भी आचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार पंचनमस्कार महामंत्र का निर्देश है। - प्रज्ञापना में प्रथम सिद्ध को नमस्कार कर उसके पश्चात् अरिहंत को नमस्कार किया है, जबकि पंचनमस्कार महामंत्र में प्रथम अरिहंत को नमस्कार है और उसके पश्चात् सिद्ध को। उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में यह स्पष्ट उल्लेख है कि तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करते समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं। इस दृष्टि से जैनपरम्परा में प्रथम सिद्धों को नमस्कार करने की परम्परा प्रारम्भ हुई। तीर्थकर अर्थात् अरिहंत प्रत्यक्ष उपकारी होने से पंचनमस्कार महामंत्र में उन्हें प्रथम स्थान दिया गया है। ई. पूर्व महाराज खारवेल, जो कलिंगाधिपति थे उन्होंने जो शिलालेख उटंकित करवाये, उनमें प्रथम अरिहंत को नमस्कार किया गया है और उसके बाद सिद्ध को। . . मूर्धन्य मनीषियों का यह अभिमत है कि जब तक तीर्थ की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक सिद्धों को प्रथम नमस्कार किया जाता है और जब तीर्थ की स्थापना हो जाती है, तब सन्निकट के उपकारी होने से प्रथम अरिहन्त को
और उसके पश्चात् सिद्धों को नमस्कार करने की प्रथा प्रारम्भ हुई होगी। प्राचीनतम ग्रन्थों में मंगलाचरण की यह पद्धति प्राप्त होती है। इसका यह अर्थ नहीं कि निश्चित रूप से ऐसा ही क्रम रहा हो। वन्दन का जहाँ तक प्रश्न है, वह साधक की भावना पर अवलम्बित है। तीर्थंकरों के अभाव में तीर्थंकर-परम्परा का प्रबल प्रतिनिधित्व करने वाले आचार्य और उपाध्याय हैं, अत: वे भी वन्दनीय माने गये और आचार्य, उपाध्याय पद के अधिकारी साधु हैं, इसलिए वे भी पांचवें पद में नमस्कार के रूप में स्वीकृत हुए हों। - पंचपरमेष्ठी नमस्कार महामंत्र का निर्माण किसने किया? यह प्रश्न सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में समुपस्थित किया गया है। उत्तर में नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामिजी ने यह समाधान किया है कि पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र सामायिक का ही एक अंग है। अतः सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठियों को नमस्कारकर सामायिक करनी चाहिए। नमस्कारमहामंत्र उत्तना ही पुराना है, जितना सामायिक सूत्र। सामायिक के अर्थकर्ता १. एत्थ पुण णियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो। -कसायपाहुड, भाग-१, गाथा १, पृष्ठ ९. २. एदस्य अत्थविसेसस्स जाणावणद्वं गुणहरभट्टारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं। -कसायपाहुड, भाग-१, गाथा १, पृष्ठ ९. ३. कयपंचनमोकारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य जं सो सेसं अतो वोच्छं ।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२७
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