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श्री प्रज्ञापना सूत्रं भाग १ तीर्थकर हैं और सूत्रकर्ता गणधर हैं। इसलिए नमस्कारमहामंत्र के भी अर्थकर्ता तीर्थंकर हैं और उसके सूत्रकर्ता गणधर
हैं।
___ द्वितीय प्रश्न यह है कि पंचनमस्कार यह आवश्यक का ही एक अंश है या यह अंश दूसरे स्थान से इसमें स्थापित किया गया है? इस प्रश्न का उत्तर भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से दिया है कि आचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में पंचनमस्कार महामंत्र को पृथक् श्रुतस्कंध के रूप में नहीं गिना है। तथापि यह स्पष्ट है कि यह सूत्र है और प्रथम मंगल भी है, इसीलिए नमस्कारमहामंत्र केवल आवश्यकसूत्र का ही अंश नहीं, किन्तु सर्वश्रुत का आदिमंगल रूप भी है। किसी भी श्रुत का पाठ ग्रहण करते समय नमस्कार करना आवश्यक है। आचार्य श्री भद्रबाह स्वामी ने नमस्कारमहामंत्र की उत्पत्ति, अनुत्पत्ति की गहराई से चर्चा विविध नयों की दृष्टि से की है। आचार्य श्री जिनभद्र स्वामी ने तो अपने विस्तृत भाष्य में दार्शनिक दृष्टि से शब्द की नित्य-अनित्यता की चर्चा कर नयदृष्टि से उस पर चिन्तन किया है। इस महामंत्र के रचयिता अज्ञात हैं। एक प्राचीन आचार्य ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है
"आगे चौबीसी हुई अनन्ती, होसी बार अनन्त ! नवकार तणी कोई आदि न जाने, यूँ भाख्यो भगवन्त!!"
महानिशीथ, जिसके उद्धारक आचार्य श्री हरिभद्र स्वामी माने जाते हैं, उसमें महामंत्र के उद्धारक आर्य वज्रस्वामी माने गये हैं और आचार्य श्री हरिभद्र स्वामी के बाद होने वाले धवला टीकाकार वीरसेन आचार्य की दृष्टि से नमस्कार के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त हैं। आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्वकाल वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई. पहली शताब्दी) है। हम पूर्व ही बता चुके हैं कि खारवेल के शिलालेख, जो ई. पूर्व १५२ हैं, उसमें 'नमो अरिहंताणं, नमो सव्वसिद्धाणं' ये पद प्राप्त होते हैं। इसमें यह स्पष्ट है कि नमस्कारमहामंत्र का अस्तित्व आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले था। श्वेताम्बर-परम्परा की दृष्टि से नमस्कारमहामंत्र के रचयिता तीर्थकर और गणधर हैं। जैसा कि आवश्यकनियुक्ति से स्पष्ट है। अस्तिकाय : एक चिन्तन
प्रज्ञापना के प्रथम पद में ही जीव और अजीव के भेद और प्रभेद बताकर फिर उन भेद और प्रभेदों की चर्चाएँ अगले पदों में की हैं। प्रथम पद में अजीव के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। अजीव का निरूपण रूपी और अरूपी इन दो भेदों में करके रूपी में पुद्गल द्रव्य का निरूपण किया है और अरूपी में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के रूप में अजीव द्रव्य का वर्णन किया गया है। किन्तु प्रस्तुत आगम.में इन भेदों का वर्णन करते समय अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जो आगम की प्राचीनता का प्रतीक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों को देश और प्रदेश इन भेदों में विभक्त किया है। किन्तु अस्तिकाय शब्द का अर्थ कहीं पर भी मूल आगम में नहीं दिया गया है। अद्धा-समय के साथ अस्तिकाय शब्द व्यवहत नहीं हुआ है। इससे धर्मास्तिकाय आदि के साथ अद्धा-समय का जो अन्तर है, वह स्पष्ट होता है। प्रस्तुत आगम में जीव के साथ अस्तिकाय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीव के प्रदेश नहीं हैं, क्योंकि प्रज्ञापना के पांचवें पद में जीव के प्रदेशों पर चिन्तन किया गया है। प्रथम पद में जिनको अजीव और जीव के मौलिक भेद कहे हैं, उन्हें ही पांचवें पद में जीवपर्याय और अजीवपर्याय कहा है। तेरहवें १. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १५४४, (ख) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८९-९०; २. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६४४ से ६४६ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३३३५ से ३३३८ तक; ३. षट्खण्डागम, धवला टीका, भाग-१, पृष्ठ ४१ तथा भाग-२, प्रस्तावना पृष्ठ ३३ से ४१
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