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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १
तथापि भिन्न-भिन्न लेखक होने से दोनों के निरूपण की शैली पृथक्-पृथक् रही है। कहीं-कहीं पर तो षट्खण्डागम से भी प्रज्ञापना का निरूपण अधिक व्यवस्थित रूप से हुआ है। मेरा यहाँ पर यह तात्पर्य नहीं है कि षट्खण्डागम के लेखक आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबलि ने प्रज्ञापना की नकल की है, पर यह पूर्ण सत्य-तथ्य है कि प्रज्ञापना की रचना षटखण्डागम से पहले हई थी। अतः उसका प्रभाव षटखण्डागम के रचनाकार पर अवश्य ही पडा होगा। जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना
__ जीवाजीवाभिगम तृतीय उपांग है और प्रज्ञापना चतुर्थ उपांग है। ये दोनों आगम अंगबाह्य होने से स्थविरकृत हैं। जीवाजीवाभिगम स्थानांग अंग का उपांग है तो प्रज्ञापना, समवायांग का। जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना इन दोनों ही आगमों में जीव और अजीव के विविध स्वरूपों का निरूपण किया गया है। इन दोनों में प्रथम अजीव का निरूपण करने के पश्चात् जीव का निरूपण किया गया है। दोनों ही आगमों में मुख्य अन्तर यह है कि जीवाजीवाभिगम, स्थानांग का उपांग होने से उसमें एक से लेकर दश भेदों का निरूपण है। दश तक का निरूपण दोनों में प्रायः समान-सा है। प्रज्ञापना में वह क्रम आगे बढ़ता है। प्रश्न यह है कि प्रज्ञापना और जीवाजीवाभिगम इन दोनों आगमों में ऐतिहासिक दृष्टि से पहले किसका निर्माण हुआ? जीवाजीवाभिगम में अनेक स्थलों पर प्रज्ञापना के पदों का उल्लेख किया है। उदाहरण के रूप में सूत्र-४, ५, १३, १५, २०, ३५, ३६, ३८, ४१, ८६, ९१, १००, १०६, ११३, ११७, ११८, १२०, १२१, १२२ इनके अतिरिक्त राजप्रश्नीयसूत्र का उल्लेख भी सूत्र-१०९, ११० में हुआ है और औपपातिकसूत्र का उल्लेख सूत्र १११ में हुआ है। इन सूत्रों के उल्लेख से यह जिज्ञासा सहज रूप से हो सकती है कि इन आगमों के नाम वल्लभीवाचना के समय सुविधा की दृष्टि से उसमें रखे गये हैं या स्वयं आग़म रचयिता स्थविर भगवान् ने रखे हैं? यदि लेखक ने ही रखे हैं तो जीवाजीवाभिगम की रचना प्रज्ञापना के बाद की होनी चाहिए।
उत्तर में निवेदन है कि जीवाजीवाभिगम आगम की रचनाशैली इस प्रकार की है कि उसमें क्रमश: जीव के भेदों का निरूपण है। उन भेदों में जीव की स्थिति, अन्तर, अल्पबहुत्व आदि का वर्णन है। सम्पूर्ण आगम दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विभाग में अजीव और संसारी जीवों के भेदों का वर्णन है, तो दूसरे विभाग में संपूर्ण संसारी और सिद्ध जीवों का निरूपण है। एक भेद से लेकर दश भेदों तक का उसमें निरूपण हुआ है। किन्तु प्रज्ञापना में विषयभेद के साथ निरूपण करने की पद्धति भी पृथक् है और वह छत्तीस पदों में निरूपित है। केवल प्रथम पद में ही जीव और अजीव का भेद किया गया है। अन्य शेष पदों में जीवों का स्थान, अल्पबहुत्व, स्थिति आदि का क्रमशः वर्णन है। एक ही स्थान पर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन प्राप्त है। पर जीवाजीवाभिगम में उन सभी विषयों की चर्चा एक साथ नहीं है। जीवाजीवाभिगम से प्रज्ञापना में वस्तुविचार का आधिक्य भी रहा हुआ है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रज्ञापना की रचना से पूर्व जीवाजीवाभिगम की रचना हुई है। अब रहा प्रज्ञापना के नाम का उल्लेख जीवाजीवाभिगम में हुआ है, उसका समाधान यही है कि प्रज्ञापना में उन विषयों की चर्चा विस्तार से हुई है। इसी कारण से प्रज्ञापना का उल्लेख भगवती आदि अंग-साहित्य में भी हुआ है और यह उल्लेख आगमलेखन के युग का है।
आगम प्रभावक पुण्यविजयजी म. का यह भी मन्तव्य है कि जैसे आचारांग, सूत्रकृतांग आदि प्राचीन आगमों में मंगलाचरण नहीं है वैसे ही जीवजीवाभिगम में भी मंगलाचरण नहीं है। इसलिए उसकी रचना प्रज्ञापना से पहले की है। प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया गया है। इसलिए वह जीवाजीवाभिगम से बाद की रचना है। १. देखिए, सूत्र संख्या के लिए जीवाभिगम, देवचंद-लालाभाई द्वारा प्रकाशित ई० सन् १९१९ की आवृत्ति २. देखिए, पन्नवणासूतं, भाग-२. प्रका. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रस्तावना पृष्ठ १४-१५
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