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________________ श्री प्रज्ञापना- सूत्र भाग १ षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों से सम्बन्धित गति आदि मार्गणाओं को दृष्टि में रखते हुए जीवों के अल्पबहुत्व पर विचार किया गया है। प्रज्ञापना में अल्पबहुत्व की मार्गणाओं के छब्बीस द्वार हैं तो षट्खण्डागम में चौदह हैं । किन्तु दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि षट्खण्डागम में वर्णित चौदह मार्गणा द्वार प्रज्ञापना में वर्णित छब्बीस द्वारों में चौदह के साथ पूर्ण रूप से मिलते हैं। जैसे कि निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है प्रज्ञापना षट्खण्डागम १. दिशा २. गति ३. इन्द्रिय ४. ५. ६. वेद काय योग ७. कषाय ८. लेश्या ९. सम्यक्त्व 26 १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय १०. लेश्या १२. सम्यक्त्व ७. ज्ञान ९. दर्शन ८. संयम प्रज्ञापना १४. आहार १५. भाषक १६. परित्त १७. पर्याप्त १८. सूक्ष्म १९. संज्ञी २०. भव २१. अस्तिकाय २२. चरम २३. जीव २४. क्षेत्र २५. बंध २६. पुद्गल षट्खण्डागम' १४. आहारक १३. संज्ञी ११. भव्य १०. ज्ञान ११. दर्शन १२. संयम १३. उपयोग जैसे प्रज्ञापनासूत्र के 'बहुवक्तव्यता नामक तृतीय पद में गति, प्रभृति मार्गणास्थानों की दृष्टि से छब्बीस द्वारों के अल्पबहुत्व पर चिन्तन करने के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण के अन्त में 'अह भंते सव्वजीवप्पबहुं महादण्डयं वत्तइस्सामि' कहा है, वैसे ही षट्खण्डागम में भी चौदह गुणस्थानों में गति आदि चौदह मार्गणास्थानों द्वारा जीवों के अल्पबहुत्व पर चिन्तन करने के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण के अन्त में महादण्डक का उल्लेख किया है। प्रज्ञापना में जीव को केन्द्र मानकर निरूपण किया गया है तो षट्खण्डागम में कर्म को केन्द्र मानकर विश्लेषण किया गया है, किन्तु खुद्दाबंध (क्षुद्रकबंध) नामक द्वितीय खण्ड में जीव बंधन का विचार चौदह मार्गणा स्थानों के द्वारा किया गया है, जिसकी शैली प्रज्ञापना से अत्यधिक मिलती-जुलती है। प्रज्ञापना' की अनेक गाथाएँ षट्खण्डागम में कुछ शब्दों के हेरफेर के साथ मिलती हैं। यहाँ तक कि आवश्यक नियुक्ति और विशेषावश्यक की गाथाओं से भी मिलती हैं। इसी प्रकार प्रज्ञापना और षट्खण्डागम इन दोनों का प्रतिपाद्य विषय एक है, दोनों का मूल स्रोत भी एक है। IIIII १. दिसि गति इंदिय काए जोगे वेदे कसाया लेस्सा य। सम्मत्त णाण दंसण संजम उवओग आहारे ॥ भासग परित्त पज्जत्त सुहुम सण्णी भवत्थिए चरिमे । जीवे य खेत्त बन्धे पोग्गल महदंडए चेव ।। - पत्रवणा. ३, बहुवत्तव्वपयं सूत्र २१२. गा. १८०, १८१; २. षट्खण्डागम, पुस्तक ७, पृ. ५२०; ३. षट्खण्डागम, पुस्तक ७, पृ. ७४५ ४. समयं वक्ताणं, समयं तेसिं सरीर निव्वत्ती । समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसासे ।। एक्कस्स उ गहणं, बहूण साहारणाण तं चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि एगस्स ।। साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाण गहणं च । साहारणजीवाणं, साहरणलक्खणं एयं ।। – प्रज्ञापना, गा० ९७ - १०१ ५. तुलना करें साहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणिदं । एयस्स अणुग्गहणं बहूणसाहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स । आवश्यकनियुक्तिगा०३१ से और विशेषावश्यक गा० ६०४ से तुलना करें - षट्खण्डागम-पुस्तक १३, गाथा सूत्र ४ से ९, १२, १३, १५, १६ -
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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