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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ दिशा में देखकर विस्मित हुए । इन्द्र के आगमन की प्रस्तुत घटना प्रभावकचरित में कालकसूरि प्रबन्ध में आचार्य कालक के साथ दी है। विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूर्णि प्रभृति ग्रन्थों में आर्य रक्षित के साथ यह घटना दी गयी है। परम्परा की दृष्टि से निगोद की व्याख्या करने वाले कालक और श्याम दोनों एक ही आचार्य हैं, क्योंकि कालक और श्याम ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। परम्परा की दृष्टि से वीरनिर्वाण ३३५ में वे युगप्रधान आचार्य हुए और ३७६ तक जीवित रहे। यदि प्रज्ञापना उन्हीं कालकाचार्य की रचना है तो वीरनिर्वाण ३३५ से ३७६ के मध्य की रचना है। आधुनिक अनुसंधान से यह सिद्ध है कि नियुक्ति के पश्चात् प्रज्ञापना की रचना हुई है। नन्दीसूत्र में जो आगमसूची दी गयी है, उसमें प्रज्ञापना का उल्लेख है। नन्दीसूत्र विक्रम संवत् ५२३ के पूर्व की रचना है। अतः इसके साथ प्रज्ञापना के उक्त समय का विरोध नहीं।
प्रज्ञापना और षट्खण्डागम: एक तुलना
आगमप्रभाकर पुण्यविजयजी म. एवं पं. दलसुख मालवणिया ने 'पन्नवणासुत्तं' ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रज्ञापनासूत्र और षट्खण्डागम की विस्तृत तुलना दी है। हम यहाँ उसी का संक्षेप में सारांश अपनी दृष्टि से प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रज्ञापना श्वेताम्बरपरम्परा का आगम है तो षट्खण्डागम दिगम्बरपरम्परा का आगम है। प्रज्ञापना के रचयिता दशपूर्वधर श्यामाचार्य हैं तो षट्खण्डागम के रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबलि हैं। दिगम्बर विद्वान् षट्खण्डागम की रचना का काल विक्रम की प्रथम शताब्दी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त होने से 'षट्खण्डागम' के रूप में विश्रुत है । ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध है कि पुष्पदन्त और भूतबलि से पूर्व श्यामाचार्य हुए थे। अतः प्रज्ञापना षट्खण्डागम से बहुत पहले की रचना है।
दोनों ही आगमों का मूल स्रोत दृष्टिवाद है। दोनों ही आगमों का विषय जीव और कर्म का सैद्धान्तिक दृष्टि से विश्लेषण करना है। दोनों में अल्पबहुत्व का जो वर्णन है, उसमें अत्यधिक समानता है, जिसे महादण्डक गया है। दोनों में गति - आगति प्रकरण में तीर्थंकर, बलदेव एवं वासुदेव के पदों की प्राप्ति के उल्लेख की समानता वस्तुतः प्रेक्षणीय है। दोनों में अवगाहना, अन्तर आदि अनेक विषयों का समान रूप से प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापना में छत्तीस पद हैं, उनमें से २३वें २७वें, ३५वें पद में क्रमशः प्रकृतिपद, कर्मपद, कर्मबंधवेदपद, कर्मवेदबंधपद, कर्मवेदवेदकपद और वेदनापद ये छह नाम हैं। षट्खण्डागम के टीकाकार वीरसेन ने षट्खण्डागम के जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, बंधस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबंध ये छह नाम दिये हैं। प्रज्ञापना के उपर्युक्त पदों में जिन तथ्यों की चर्चाएँ की गयी हैं, उन्हीं तथ्यों की चर्चाएँ षट्खण्डागम में भी की गयी हैं।
दोनों आगमों में गति आदि मार्गणास्थानों की दृष्टि से जीवों के अल्पबहुत्व पर चिन्तन किया गया है। प्रज्ञापना में अल्पबहुत्व की मार्गणाओं के छब्बीस द्वार हैं जिनमें जीव और अजीव इन दोनों पर विचार किया गया है।
१. (क) अज्झयणमिणचित्तं सुयरयणं दिडीवायणीसंदं । जह वण्णियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ - प्रज्ञापनासूत्र, पृष्ठ १, गा. ३ (ख) अग्रायणीयपूर्वस्थित-पंचमवस्तुगतचतुर्थमहाकर्मप्राभृतकज्ञः सूरिर्धरसेननामाऽभूत् ।। १०४ ।। कर्मप्रकृतिप्राभृतमुपसंहार्यैव षड्भिरिह खण्डैः ॥१३४ - श्रुतावतार - इन्द्रनन्दीकृत, (ग) भूतबलि - भयावदा जिणवालिदपासे दिट्ठविसदिसुत्तेण अप्पाउओत्ति अवगयजिणवालिदेण महाकम्मपयडिपाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुप्पणबुद्धिणा पुणो दव्वपमाणाणुगममादिं काऊण गंथरयणा कदा । - षट्खण्डागम, जीवद्वाण, भाग १, पृष्ठ ७१
२. अह भंते! सव्वजीवप्पबहुं महादंडयं वण्णइस्सामि सव्वत्थोवा गब्भवक्कतिया मणुस्सा... सजोगी विसेसाहिया ९६, संसारत्था विसेसाहिया ९८, सव्वजीवा विसेसाहिया ९८ । प्रज्ञापनासूत्र - ३३४ तुलना करें - 'एत्तो सव्वजीवेसु महादंडओ कादव्वो भवदि सव्वत्थोवा मणुस्सपज्जत्ता गब्भोववक्कंतिया... णिगोदजीवा विसेसाहिया । - षट्खण्डागम, पुस्तक ७
३. प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र १४४४ से ६५ तुलना करें - षट्खण्डागम, पुस्तक ६, सूत्र ११६ - २२०
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