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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ आचार्य थे। उनका जन्म वीरनिर्वाण २८० (विक्रम पूर्व १९०) है। संसार से विरक्त होकर वीरनिर्वाण ३०० (विक्रम पूर्व १५०) में उन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार की। दीक्षा ग्रहण के समय उनकी अवस्था बीस वर्ष की थी। अपनी महान् योग्यता के आधार पर वीरनिर्वाण ३३५ (विक्रम पूर्व १३५) में उन्हें युग-प्रधानाचार्य के पद से विभूषित किया गया था। इन तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य ने, जिन्हें श्यामाचार्य भी कहते हैं, प्रज्ञापना जैसे विशालकाय सूत्र की रचनाकर अपने विशद वैदुष्य का परिचय दिया था।अनुयोग की दृष्टि से प्रज्ञापना द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत है। प्रज्ञापना को समग्र श्रमण-संघ ने आगम के रूप में स्वीकार किया। यह आचार्य श्याम की निर्मल नीति और हार्दिक विश्वास का द्योतक है। उनका नाम श्याम था पर विशुद्धतम चारित्र की आराधना से वे अत्यन्त समुज्ज्वल पर्याय के धनी थे। पट्टावलियों में उनका तेवीसवाँ स्थान पट्ट-परम्परा में नहीं है। अन्तिम कालकाचार्य प्रज्ञापना के कर्ता नहीं हैं, क्योंकि नन्दीसूत्र, जो वीर निर्वाण ९९३ के पहले रचित है, उसमें प्रज्ञापना को आगम-सूची में स्थान दिया है। अतः अब चिन्तन करना है कि प्रथम और द्वितीय कालकाचार्य में से कौन प्रज्ञापना के रचयिता हैं? डॉ. उमाकान्त का अभिमत है कि यदि दोनों कालकाचार्यों का एक माना जाये तो ग्यारहवें पाट पर जिन श्यामाचार्य का उल्लेख है, वे और गर्दभिल्ल राजा को नष्ट करने वाले कालकाचार्य ये दोनों एक सिद्ध होते हैं। पट्टावली में जहाँ उन्हें भिन्न-भिन्न गिना है, वहाँ भी एक तिथि वीर-संवत् ३७६ है और दूसरे की तिथि वीर-संवत् ४५३ है। वैसे देखें तो इनमें ७७ वर्ष का अन्तर है। इसलिए चहे जिसने प्रज्ञापना की रचना की हो, प्रथम या द्वितीय अथवा दोनों एक ही हों तो भी विक्रम के पूर्व होने वाले कालकाचार्य (श्यामाचार्य) थे इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है। - परम्परा की दृष्टि से आचार्य श्याम की अधिक प्रसिद्धि निगोद-व्याख्याता के रूप में रही है। एक बार भगवान् सीमंधर से महाविदेह क्षेत्र में शक्रेन्द्र ने सूक्ष्मनिगोद की विशिष्ट व्याख्या सुनी। उन्होंने जिज्ञासा प्रस्तुत की-क्या भगवन्! भरतक्षेत्र में भी निगोद सम्बन्धी इस प्रकार की व्याख्या करने वाले कोई श्रमण, आचार्य और उपाध्याय हैं? सीमंधर ने आचार्य श्याम का नाम प्रस्तत किया। वद्ध ब्राह्मण के रूप में शक्रेन्द्र आचार्य श्याम के पास आये। आचार्य के ज्ञानबल का परीक्षण करने के लिए उन्होंने अपना हाथ उनके सामने किया। हस्तरेखा के आधार पर आचार्य श्याम.ने देखा-वृद्ध ब्राह्मण की आयु पल्योपम से भी अधिक है। उनकी गम्भीर दृष्टि उन पर उठी और कहा-तुम मानव नहीं, अपितु शक्रेन्द्र हो। शक्रेन्द्र को आचार्य श्याम के प्रस्तुत उत्तर से संतोष प्राप्त हुआ। उन्होंने निगोद के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा रखी। आचार्य श्याम ने निगोद का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषणकर शक्रेन्द्र को आश्चर्याभिभूत कर दिया। शक्रेन्द्र ने कहा-जैसा मैंने भगवान् सीमंधर से निगोद का विवेचन सुना, वैसा ही विवेचन आपके मुखारविन्द से सुनकर मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ। देव की अद्भुत रूपसम्पदा को देखकर कोई शिष्य निदान न कर ले, इस दृष्टि से भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनिमण्डल के आगमन से पहले ही शक्रेन्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करता हुआ जाने के लिए उद्यत हो गया। ज्ञान के साथ अहं न आये, यह असम्भव है। महाबली, विशिष्ट साधक बाहुबली और कामविजेता आर्य स्थूलभद्र में भी अहंकार आ गया था, वैसे ही श्यामाचार्य भी अहंकार से ग्रसित हो गये। उन्होंने कहा-तुम्हारे आगमन के बाद मेरे शिष्य बिना किसी सांकेतिक चिह्न के किस प्रकार जान पायेंगे? आचार्यदेव के संकेत से शक्रेन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्वाभिमुख से पश्चिमाभिमुख कर दिया। जब आचार्य श्याम के शिष्य भिक्षा लेकर लौटे तो द्वार को विपरीत १. , सिरिवीराओ गएसु पणतीसहिएस तिसय (३३५) वरिसेसु। पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति ।।५५।। (रत्नसंचय प्रकरण, पत्रांक ३२); २. निज्जूढा जेण तया पन्नवणा सव्वभावपन्नवणा। तेवीसइमो पुरिसो पवरो सो जयइ सामज्जो ।।१८८।। -24
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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