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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भांग १ जैन दृष्टि से सभी तत्त्वों का समन्वय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में किया गया है। अतः आचार्य मलयगिरि ने द्रव्य का समावेश प्रथम पद में, क्षेत्र का द्वितीय पद में, काल का चतुर्थ पद में और भाव का शेष पदों में समावेश किया है। प्रज्ञापना का भगवती विशेषण . पाँचवें अंग का नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है और उसका विशेषण 'भगवती' है। प्रज्ञापना को भी 'भगवती' विशेषण दिया गया है, जबकि अन्य किसी भी आगम के साथ यह विशेषण नहीं लगाया गया है। यह विशेषण प्रज्ञापना की महत्ता-विशेषता का प्रतीक है। भगवती में प्रज्ञापना सूत्र के एक, दो, पाँच, छह, ग्यारह, पन्द्रह, सत्तरह, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस पदों के अनुसार विषय की पूर्ति करने की सूचना है। यहाँ पर यह ज्ञातव्य है कि प्रज्ञापना उपांग होने पर भी भगवती आदि का सूचन उसमें नहीं किया गया है। इसके विपरीत भगवती में प्रज्ञापना का सूचन है। इसका मूल कारण यह है कि प्रज्ञापना में जिन विषयों की चर्चाएँ की गयी हैं, उन विषयों का उसमें सांगोपांग वर्णन है। ___ महायान बौद्धों में 'प्रज्ञापारमिता' ग्रन्थ का अत्यधिक महत्त्व है। अतः अष्टसाहसिका प्रज्ञापारमिता का भी अपरनाम 'भगवती' मिलता है। प्रज्ञापना के रचयिता प्रज्ञापना के मूल में कहीं पर भी उसके रचयिता के नाम का निर्देश नहीं है। उसके प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् दो गाथाएँ हैं। उनकी व्याख्या आचार्य श्री हरिभद्रजी और आचार्य श्री मलयगिरिजी दोनों ने की है। किन्तु वे उन गाथाऔं को प्रक्षिप्त मानते हैं। उन गाथाओं में स्पष्ट उल्लेख है-यह श्यामाचार्य की रचना है। आचार्य श्री मलयगिरिजी ने श्यामाचार्यजी के लिए 'भगवान्' विशेषण का प्रयोग किया है। आर्य श्यामाचार्यजी वाचक वंश के थे। वे पूर्वश्रुत में निष्णात थे। उन्होंने प्रज्ञापना की रचना में विशिष्ट कला प्रदर्शित की, जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की चर्चा के लिए प्रज्ञापना देखने का सूचन किया है। नन्दी-स्थविरावली में सुधर्मा से लेकर क्रमशः बलिस्सह के शिष्य आर्य स्वाति थे। आर्य स्वाति भी हारित गोत्रीय परिवार के थे। आचार्य श्याम आर्य स्वाति के शिष्य थे। किन्तु प्रज्ञापना की प्रारम्भिक प्रक्षिप्त गाथा में आर्य श्याम को वाचक वंश का बताया है और साथ ही तेवीसवें पट्ट पर भी बताया है। आचार्य श्री मलयगिरिजी ने भी उनको तेवीसवीं आचार्यपरम्परा पर माना है। किन्तु सुधर्मा से लेकर श्यामाचार्य तक उन्होंने नाम नहीं दिये हैं। पट्टावलियों के अध्ययन से यह भी परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नाम के तीन आचार्य हुए हैं। एक का वीर निर्वाण ३७६ में स्वर्गवास हुआ। द्वितीय गर्दभिल्ल को नष्ट करनेवाले कालकाचार्य हुए। उनका समय वीर निर्वाण ४५३ है। तृतीय कालकाचार्य, जिन्होंने संवत्सरी महापर्व पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाया था, उनका समय वीरनिर्वाण ९९३ है। ___ इन तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य 'श्यामाचार्य' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये अपने युग के महाप्रभावक १. शिक्षा समुच्चय, पृ. १०४-११२, २००; २. (क) भगवान् आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति (टीका, पत्र ७२) (ख) भगवान् आर्यश्यामपठति (टीका, पत्र ४७) (ग) सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् (टीका, पत्र ३८५) (घ) भगवदार्यश्यामप्रतिपत्ती (टीका, पत्र-३८५); ३. हारियगोत्तं साइं च, वंदिमो हारियं च सामज्जं ॥२६ (नन्दी स्थविरावली); ४. (क) आद्याः प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोद-विचारवक्ता श्यामाचार्यपरनामा। स तु वीरात् ३७६ वर्षर्जातः। -(खरतरगच्छीय पट्टावली) (ख) धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार-एक कालक जो वीर निर्वाण ३७६ में मृत्यु को प्राप्त हुए।; ५. 'पन्नवणासुतं'-पुण्यविजयजी म., प्रस्तावना पृष्ठ २२; ६. (क) पृथ्वीचन्द्रसूरि विरचित कल्पसूत्र टिप्पणक, सूत्र २९१ की व्याख्या। (ख) कल्पसूत्र की विविध टीकाएँ। - 23
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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