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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ समझना चाहिए। रचना शैली
प्रज्ञापना की रचना प्रश्नोत्तर के रूप में हुई है। प्रथम सूत्र से लेकर इक्यासीवें सूत्र तक प्रश्नकर्ता कौन है और उत्तरदाता कौन है? इस सम्बन्ध में कोई भी सूचन नहीं है। केवल प्रश्न और उत्तर हैं। इसके पश्चात् बयासीवें सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर और गणधर गौतम का संवाद है। तेरासीवें सूत्र से लेकर बानवें (९२) सूत्र तक सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। तेरानवें सूत्र में गणधर गौतम और महावीर के प्रश्नोत्तर, उसके पश्चात् चौरानवें सूत्र से लेकर एक सौ सेंतालीसवें सूत्र तक सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। उसके पश्चात् एक सौ अड़तालीस से लेकर दो सौ ग्यारह तक अर्थात् सम्पूर्ण द्वितीय पद में; तृतीय पद के सूत्र दो सौ पच्चीस से दो सौ पचहत्तर तक और सूत्र तीन सौ पच्चीस, तीन सौ तीस से तीन सौ तेतीस तक व चतुर्थ पद से लेकर शेष सभी पदों के सूत्रों में गौतम गणधर और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर दिये हैं। केवल उनके प्रारम्भ, मध्य और अन्त में आनेवाली गाथा और एक हजार छियासी में वे प्रश्नोत्तर नहीं हैं। (ये सूत्र क्रमांक ज्ञानमुनिजी संपादित प्रज्ञापना सूत्र के हैं।
. जिस प्रकार प्रारम्भ में सम्पूर्ण ग्रन्थ की अधिकार-गाथाएँ आयी हैं, उसी प्रकार कितने ही पदों के प्रारम्भ में भी विषय निर्देशक गाथाएँ हैं। उदाहरण के रूप में तीसरे, अठारहवें, बीसवें और तैईसवें पदों के प्रारम्भ और उपसंहार में गाथाएँ दी गयी हैं। सम्पूर्ण आगम का श्लोकप्रमाण सात हजार आठ सौं सतासी है। इसमें प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर कुल दो सौ बत्तीस गाथाएँ हैं और शेष गद्य भाग है। इस आगम में जो संग्रहणी गाथाएँ हैं, उनके रचयिता कौन हैं? यह कहना कठिन है। प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में से प्रथम पद में जीव में दो भेद-संसारी और सिद्ध बताये हैं। उसके बाद इन्द्रियों के क्रम के अनुसार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में सभी संसारी जीवों का समावेश करके निरूपण किया है। यहाँ जीव के भेदों का नियामक तत्त्व इन्द्रियों की क्रमशः वृद्धि बतलाया है। दूसरे पद में जीवों की स्थानभेद से विचारणा की गयी है। इसका क्रम भी प्रथम पद की भाँति इन्द्रियप्रधान ही है। जैसे-वहाँ एकेन्द्रिय कहा, वैसे ही यहाँ पृथ्वीकाय, अप्काय आदि कायों को लेकर भेदों का निरूपण किया गया है। तृतीय पद से लेकर शेष पदों में जीवों का विभाजन गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव, अस्तिकाय, चरम, जीव, क्षेत्र, बंध इन सभी दृष्टियों से किया गया है। उनके अल्पबहुत्व का भी विचार किया गया है। अर्थात् प्रज्ञापना में तृतीय पद के पश्चात् के पदों में कुछ अपवादों को छोड़कर सर्वत्र नारक से लेकर चौबीस दण्डकों में विभाजित जीवों की विचारणा की गयी है। विषय विभाग
आचार्य श्री मलयगिरिजी ने प्रज्ञापना सूत्र में आयी हुई दूसरी गाथा की व्याख्या करते हुए विषय-विभाग का सम्बन्ध जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों के निरूपण के साथ इस प्रकार संयोजित किया है. १-२. जीव-अजीव पद-१, ३, ५, १० और १३ - ५ पद ३. आस्रव
पद-१६, २२
= २ पद ४. बन्ध
पद-२३
. = १ पद ५-७. संवर, निर्जरा और मोक्ष पद-३६
= १ पद शेष पदों में क्वचित् जीवादितत्त्वों में से यथायोग्य किसी तत्त्व का निरूपण है। १. पण्णवणासुत्तं, द्वितीय भाग (प्रकाशक-श्री महावीर जैन विद्यालय) प्रस्तावना, पृष्ठ १०-११; २. इस अपवाद के लिए देखिए, पद-१३, १८, २१
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