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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ भगवान् महावीर के समय में श्रमण परम्परा के अन्य पाँच सम्प्रदाय विद्यमान थे। उनमें से कुछ ऐसे थे जिनके अनुयायियों की संख्या भगवान् महावीर प्रभु के संघ से भी अधिक थी। उन पाँच सम्प्रदायों का नेतृत्व क्रमशः पूरण काश्यप, मंखली गोशालक, अजित केशकम्बल, पकुध कात्यायन और संजय वेलट्ठिपुत्र कर रहे थे। परिस्थितियों के वात्याचक्र से वे पाँचों सम्प्रदाय काल के गर्भ में विलीन हो गये। वर्तमान में उनका अस्तित्व इतर साहित्य में ही उपलब्ध होता है। तथागत बुद्ध की धारा विदेशों तक प्रवाहित हुई और भारत में लगभग विच्छिन्न हो गयी थी। यदि हम उन सभी धर्माचार्यों के दार्शनिक पहलुओं पर चिन्तन करें तो स्पष्ट होगा कि भगवान् महावीर ने जीव, अजीव प्रभृति तत्त्वों का जो सूक्ष्म विश्लेषण किया है, वैसा सूक्ष्म विश्लेषण उस युग के अन्य कोई भी धर्माचार्य नहीं कर सके। यहाँ तक कि तथागत बुद्ध तो 'अव्याकृत' कहकर आत्मा, परमात्मा आदि प्रश्नों को टालने का ही प्रयास करते रहे। प्रज्ञापना के भाषापद में 'पन्नवणी' एक भाषा का प्रकार बताया है। उसकी व्याख्या करते हुए आचार्य मलयगिरि ने लिखा है-जिस प्रकार से वस्तु व्यवस्थित हो, उसी प्रकार उसका कथन जिस भाषा के द्वारा किया जाय, वह भाषा 'प्रज्ञापनी' है। प्रज्ञापना का यह सामान्य अर्थ है। तात्पर्य यह है कि जिसमें किसी भी प्रकार के धार्मिक विधि-निषेध का नहीं अपित सिर्फ वस्तस्वरूप का ही निरूपण होता है, वह 'प्रज्ञापनी' भाषा है।' आचार्य मलयगिरि का यह अभिमत है कि प्रज्ञापना समवाय का उपांग है। पर निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रज्ञापना का सम्बन्ध समवाय के साथ कब जोड़ा गया? प्रज्ञापना के रचयिता आचार्य श्याम का अभिमत है कि उन्होंने प्रज्ञापना को दृष्टिवाद से लिया है। पर हमारे सामने इस समय दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है, अतः स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रज्ञापना में पूर्वसाहित्य से कौन सी सामग्री ली है? तथापि यह निश्चित है कि ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद के साथ इसके वस्तु निरूपण का मेल बैठता है।" प्रज्ञापना और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ षटखण्डागम का विषय प्रायः समान है। आचार्य वीरसेन ने अपनी धवला टीका में षटखण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणी पूर्व के साथ जोड़ा है। अतः हम भी प्रज्ञापना का सम्बन्ध अग्रायणी पूर्व के साथ जोड़ सकते हैं। टीकाकार आचार्य श्री मलयगिरिजी की दृष्टि से समवायांग में जो वर्णन है, उसी का विस्तार प्रज्ञापना में हुआ है। अतः प्रज्ञापना समवायांग का उपांग है। पर स्वयं शास्त्रकार ने इसका सम्बन्ध दृष्टिवाद से बताया है। अत: यही मानना उचित प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध समवायांग की अपेक्षा दृष्टिवाद से अधिक है। किन्तु दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दृष्टि (दर्शन) का ही वर्णन था। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव, अजीव आदि तत्त्वों का निरूपण है और प्रज्ञापना में भी यही निरूपण है, अतः प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग मानने में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं है। प्रज्ञापना में छत्तीस विषयों का निर्देश है, इसलिए इसके छत्तीस प्रकरण हैं। प्रकरण को इसमें 'पद' नाम दिया है। प्रत्येक प्रकरण के अन्त में प्रतिपाद्य विषय के साथ पद शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य मलयगिरि पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-'पदं प्रकरणमर्थाधिकारः इति पर्यायाः", अतः यहाँ पद का अर्थ प्रकरण और अर्थाधिकार १. तेन खलु समयेन राजगृहे नगरे षट् पूर्णाद्याः शास्तारोऽसर्वज्ञाः सर्वज्ञमानिनः प्रतिवसंतिस्म। तद्यथा-पूरण-काश्यपो, मश्करीगोशलिपुत्र, संजयी वैरट्टीपुत्रोऽजितः केशकम्वलः, ककुदः कत्यायनो, निग्रंथो ज्ञातपुत्रः। (दिव्यावदान, १२।१४३।१४४।); २. मिलिन्द प्रश्न–२।२५ से ३३, पृष्ठ ४१ से ५२; ३. 'प्रज्ञापनी-प्रज्ञाप्यतेऽर्थोनयेति प्रज्ञापनी'-प्रज्ञापना पत्र २४९; ४. यथावस्थितार्थाभिधानादियं प्रज्ञापनी।। -प्रज्ञापना पत्र २४९; ५. इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थाङ्गस्योपांगम् तदुक्तार्थप्रतिपादनात्। -प्रज्ञापना टीका पत्र १; ६. अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्ठिवायणीसंदं। जह वणियं भगवया अहमवि तद वणइस्सामि।। गा.३; ७. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना मुनि पुण्यविजयजी, पृष्ठ ९; ८. षट्खण्डागम, पु० १, प्रस्तावना, पृष्ठ ७२; ९. प्रज्ञापना टीका, पत्र ६; १०. सूत्रसमूहः प्रकरणम्। -न्यायवार्तिक, पृष्ठ १ 21
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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