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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ पर्यायवाची कहने हैं, वे शब्द वस्तुतः पर्यायवाची नहीं होते। समभिरूढनय की दृष्टि से कोई भी शब्द पर्यायवाची नहीं है। प्रत्येक शब्द का अपना पृथक अर्थ वाच्य होता है। प्रज्ञा शब्द का भी अपने आप में एक विशिष्ट अर्थ है। बुद्धि शब्द स्थूल और भौतिक जगत् से सम्बन्धित है। पर प्रज्ञा शब्द बुद्धि से बहुत ऊपर उठा हुआ है। बहिरंग ज्ञान के अर्थ में बुद्धि शब्द का प्रयोग हुआ है तो अन्तरंग जगत् की बुद्धि प्रज्ञा है। प्रज्ञा अतीन्द्रिय जगत् का ज्ञान है। वह आन्तरिक चेतना का आलोक है। 'प्रज्ञा' किसी ग्रन्थ के अध्ययन से उपलब्ध नहीं होती। वह तो संयम
और साधना से उपलब्ध होती है। प्रज्ञा को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-(१) इन्द्रियसंबद्ध प्रज्ञा और (२) इन्द्रियातीत प्रज्ञा। आचार्य वीरसेन ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद प्रतिपादित करते हुए लिखा है-गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्यशक्ति प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है। इससे यह स्पष्ट है कि चेतना का शास्त्रनिरपेक्ष विकास प्रज्ञा है। प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती. अपित आन्तरिक विकास है। प्रज्ञा इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करनेवाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। पातंजलयोग-दर्शन में प्रज्ञा पर विस्तार से चिन्तन करते हुए उसकी मर्यादायें तथा उसके क्रमिक विकास की सीमायें बतायीं हैं। प्रज्ञा की सात भूमिकाएँ भी बतायी हैं। जितना संयम का विकास होता है, उतनी ही प्रज्ञा निर्मल होती है। संक्षेप में सारांश यह है कि विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है। - प्रज्ञापना में जीव और अजीव का गहराई से निरूपण होने के कारण इस आगम का नाम 'प्रज्ञापना' रखा गया है। भगवती', आवश्यक मलयगिरिवृत्ति', आवश्यकचूर्णि', महावीरचरिय, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र', में श्रमण भगवान् श्री महावीर प्रभु के द्वारा छद्स्थ अवस्था में दश महास्वप्न देखने का उल्लेख है। उन स्वप्नों में तृतीय स्वप्न यह था-एक रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल उनके सामने समुपस्थित था। उस स्वप्न का फल था-वे विविध ज्ञानमय द्वादशांग श्रुत की प्रज्ञापना करेंगे। इसमें 'प्रज्ञापयति' और 'प्ररूपयति' इन क्रियाओं से यह स्पष्ट है कि भगवान् का उपदेश प्रज्ञापना-प्ररूपणा है। उस उपदेश को मूल आधार बनाकर प्रस्तुत आगम की रचना की गयी, इसलिए इसका नाम 'प्रज्ञापना' रखा गया। प्रस्तुत आगम के रचयिता श्यामाचार्य ने इसका सामान्य नाम 'अध्ययन' दिया है और विशेष नाम 'प्रज्ञापना' दिया है। उनका अभिमत है-भगवान् महावीर ने सर्वभावों की प्रज्ञापना की है। उसी प्रकार मैं भी यहाँ सर्वभावों की प्रज्ञापना करने वाला हूँ। अतः इस आगम का विशेष नाम 'प्रज्ञापना' है। उत्तराध्ययन की तरह प्रस्तुत आगम का पूर्ण नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन' यह हो सकता है।
प्रज्ञापना सूत्र में एक ही अध्ययन है, जबकि उत्तराध्ययन में छत्तीसअध्ययन हैं। प्रज्ञापना के प्रत्येक पद के अन्त में पनवणाए भगवईए' यह पाठ मिलता है, इसीलिए यह स्पष्ट है कि अंग साहित्य में जो स्थान भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति) का है, वही स्थान उपांगों में 'प्रज्ञापना' का है। अंगसाहित्य में जहाँ-तहाँ भगवान् ने यह कहा' इस प्रकार के वाक्य उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर 'पण्णत्तं' शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत आगम में भी प्रज्ञापना शब्द का प्राधान्य है, सम्भवतः इसीलिए श्यामाचार्य ने इसका नाम प्रज्ञापना रखा हो। भगवतीसत्र में आर्यस्कन्धक का वर्णन है। वहाँ पर स्वयं भगवान् महावीर ने कहा-"एवं खलु मए खन्धया! चउव्विहे लोए पण्णत्ते"। इसी तरह आचारांग आदि आगमों में अनेक स्थलों पर भगवान् के उपदेश के लिए प्रज्ञापना शब्द का प्रयोग हुआ है। आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार प्रज्ञापना में जो 'प्र' उपसर्ग है, वह भगवान् महावीर के उपदेश की विशेषता को सूचित करता है। १. भगवती १६।६।५७०; २. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृष्ठ २७०; ३. आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ २७५; ४. महावीरचरियं ५।१५५; ५. त्रिषष्टिशलाका
पुरुष चरित्र १०।३।१४६; ६. 'अज्झयणमिणं चित्तं'-प्रज्ञापना गा.३; ७. 'उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्व भावाणं।जह वण्णियं भगवया • अहमवि तह वण्णइस्सामि।। -प्रज्ञापना गा. २-३; ८. भगवतीसूत्र, २।१।९०
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