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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ दीक्षा आदि में सातों पदाधिकारियों का अपूर्व योगदान था। आचार्य संघ का संचालन करते थे । उपाध्याय सूत्र की वाचना देते थे। स्थविर श्रमणों को संयम - साधना में स्थिर करते । प्रवर्तक आचार्य द्वारा निर्दिष्ट प्रवृत्तियों का संघ में प्रवर्तन करते। गणी लघु श्रमणों के समूह का कुशल नेतृत्व करते। गणधर श्रमणों की दिनचर्या का ध्यान रखते और गणावच्छेदक अन्तरंग व्यवस्था करते। इस तरह सभी शासन की श्रीवृद्धि में जुटे रहते थे । भगवान् महावीर के शासन में अनेक प्रतिभासंपन्न, तेजस्वी, वचस्वी, मनस्वी, यशस्वी श्रमण थे। श्रमण भगवान् महावीर ने भव्य जीवों के उद्बोधनार्थ अर्थागम प्रदान किया। गणधरों ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से उसको गूंथकर सूत्रागम का रूप दिया। आचार्यों ने उस श्रुत-सम्पदा का संरक्षण किया। गणधरों द्वारा रचित अंगागम-निधि का आलम्बन लेकर उपांगों की रचना हुई । उपांगो में चतुर्थ उपांग का नाम " प्रज्ञापना" है। बौद्ध साहित्य में प्रजा के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। वहाँ पर 'पञ्ञ' और 'पञ्ञा' शब्द अनेक बार व्यवहृत हुए हैं। बौद्ध पाली साहित्य में 'पञ्ञाती' नामक एक ग्रन्थ भी है, जिसमें विविध प्रकार के पुद्गल अर्थात् पुरुष के अनेक प्रकार के भेदों का निरूपण है। उनमें पञ्ञति यानी प्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना नाम का तात्पर्य एक. सदृश है। आचार्य पतंजलि ने “ऋतंभरा प्रज्ञा " तथा " तज्जयात्प्रज्ञालोक" प्रभृति सूत्रों में प्रज्ञा का उल्लेख किया है। भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ की चर्चा करते हुए "तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता " शब्द का प्रयोग किया है। जैन आगम साहित्य में भी अनेक स्थानों पर 'प्रज्ञा' शब्द प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण के रूप में - आचारांग सूत्र के दूसरे अध्ययन के पच्चीसवें, छब्बीसवें सूत्र में 'प्रज्ञान' शब्द प्राप्त है और अन्य स्थलों पर सूत्रकृतांग में श्रमण भगवान् महावीर की संस्तुति करते हुए प्रज्ञ', आशुप्रज्ञ', भूतिप्रज्ञ', तथा अन्य स्थलों पर महाप्रज्ञ' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। भगवान् महावीर को प्रज्ञा का अक्षय स कहा है।' उत्तराध्ययसूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीकुमार श्रमण गणधर गौतम से पूछते हैं - हे मेधाविन्! हम एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं तो फिर इस (आचार) भेद का क्या कारण है? इन दो प्रकार के धर्मों में आपको विप्रत्यय नहीं होता? गौतम ने कहा-धर्म तत्त्व का निर्णय प्रज्ञा करना चाहिए। केशीकुमार श्रमण ने गणधर गौतम की प्रज्ञा को पुनः पुनः साधुवाद किया। आचारचूला में यह स्पष्ट लिखा है - समाधिस्थ श्रमण की प्रज्ञा बढ़ती है।" आचार्य यतिवृषभ ने 'तिलोयपन्नत्ति' ग्रंथ में श्रमणों की लब्धियों का वर्णन करते हुए एक लब्धि का नाम 'प्रज्ञाश्रमण' दिया है। प्रज्ञाश्रमण लब्धि जिस मुनि को प्राप्त होती है, वह मुनि सम्पूर्ण श्रुत का तलस्पर्शी अध्येता बन जाता है। प्रज्ञाश्रमणऋद्धि के औत्पात्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा ये चार प्रकार बताये हैं। मंत्रराजरहस्य में प्रज्ञाश्रमण का वर्णन है । ३ कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने प्रज्ञाश्रमण की व्याख्या की है। १४ आचार्य वीरसेन ने प्रज्ञाश्रमण को वन्दन किया है और साथ ही उन्हें जिन भी कहा है । १५ आचार्य अकलंक ने भी प्रज्ञाश्रमण का वर्णन किया है। १६ अब चिन्तनीय यह है कि प्रज्ञा शब्द का प्रयोग विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर हुआ है। विभिन्न कोशकारों प्रज्ञा को ही बुद्धि कहा है। यह बुद्धि का पर्यायवाची माना गया है और एकार्थक भी! किन्तु चिन्तन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट होता है कि दोनों शब्दों की एकार्थता स्थूलदृष्टि से ही है। कोशकार जिन शब्दों को १. पातंजलयोगदर्शन, समाधिपाद सूत्र ४८; २. पातंजलयोगदर्शन, विभूतिपाद सूत्र ५; ३. श्रीमद् भगवद्गीता, अ. २-५७, ५८, ६१, ६८ ४. सूत्रकृतांग, प्रज्ञ. ६।४ १५ ११७१८ १ १४ १९, २/१/६६, २/६/६ ५. सूत्रकृतांग, आशुप्रज्ञ ६।७।२५, ११५/२, १२१४१४, २२, २/५/१, २/६/१८ ६. सूत्रकृतांग ६ । १५/१८; ७ सूत्रकृतांग, महाप्रज्ञ १।११।१३, ३८ ८. सूत्रकृतांग ११६/८; ९. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २३, गाथा २५६ १०. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन - २३, गाथा - २८, ३४, ३९, ४४, ४९, ५४, ५९, ६४, ६९, ७४, ७९, ८५ ११. आयारचूला २६१५; १२. धवला ९१४, १, १८/८४ । २; १३. मंत्रराजरहस्य, श्लोक ५२२; १४. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग-२, पृष्ठ ३६५ - १५. षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदना खण्ड, धवला ९, लब्धि स्वरूप का वर्णन; १६. तत्त्वार्थराजवार्तिक, सूत्र ३६ 19
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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