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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १
प्रस्तावना
प्रज्ञापना : एक समीक्षात्मक अध्ययन
आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी
भारतवर्ष अध्यात्म की उर्वरा भूमि है। यहाँ के प्रत्येक कण-कण में अध्यात्म का सुरीला संगीत है। प्रत्येक अणुअणु में तत्त्व-दर्शन का मधुर रस है। यहाँ की पावन पुण्य धरा ने ऐसे नर-रत्नों का प्रसव किया है जो धर्म और अध्यात्म के मर्त रूप हैं। उनके हृदय की प्रत्येक धडकन अध्यात्म की वडकन है। उनके प्रशस्त और निर्मल चिन्तन ने जीव और जगत् की आत्मा और परमात्मा को, धर्म और दर्शन को समझने का विमल और विशुद्ध दृष्टिकोण प्रदान किया।
चौबीस तीर्थंकरों ने इस अध्यात्मप्रधान पण्य-भमि पर जन्म लिया। उन्हें वैदिकपरम्परा के अवतारों की तर पुनः पुनः जन्म ग्रहणकर जन-जन का उत्थान करना अभीष्ट नहीं था, और न तथागत बुद्ध की तरह बोधिसत्वों के माध्यम से पुनः पुनः जन्म लेकर जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार करना ही मान्य था। अवतारवाद में उनका विश्वास नहीं था, उत्तारवाद ही उन्हें पसंद था। .
- जैनपरम्परा में तीर्थंकरों का स्थान सर्वोपरि है। नमस्कार महामंत्र में सिद्धों से पूर्व तीर्थंकरों-अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। तीर्थकर सूर्य की भांति तेजस्वी होते हैं-'आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।' वे अपनी ज्ञान-रश्मियों से विश्व की आत्मा को आलोकित करते हैं। वे अपने युग के प्रबल प्रतिनिधि होते हैं। चन्द्र की तरह वे सौम्य होते हैं। मानवता के परम प्रस्थापक होते हैं। वे साक्षात् द्रष्टा, ज्ञाता तथा आत्मनिर्भर होते हैं। वे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन उत्पन्न होने के पश्चात् उपदेश देते हैं। उनका उपदेश अनुभूत सत्य पर आधृत होता है। उनके उपदेश और व्यवस्था किसी परम्परा से आबद्ध नहीं होती।
___ वर्तमान अवंसर्पिणी काल में इस पावन धरा पर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवंत हुए। उनके बाद बावीस तीर्थकर हुए, फिर चौबीसवें तीर्थकर महावीर भगवंत हुए। सभी तीर्थंकरों की सर्वतंत्र-स्वतंत्र परम्पराएँ थीं और सर्वतंत्र-स्वतंत्र उनका शासन था। श्रमण भगवान् महावीर के समय भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के हजारों श्रमण थे। जब वे श्री महावीर स्वामी के संघ में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने भगवान् श्री पार्श्वनाथ की चातुर्याम साधना-पद्धति का परित्याग कर पंच महाव्रत-साधना-पद्धति का स्वीकार किया। इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक तीर्थकर का विराट् व्यक्तित्व और कृतित्व किसी तीर्थंकर विशेष की परम्परा के साथ आबद्ध नहीं होता, यद्यपि मौलिक आचारव्यवस्था एवं तत्त्वदर्शन सनातन है, त्रिकाल में एकरूप रहता है, क्योंकि सत्य शाश्वत है।
वर्तमान जैन शासन श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी से सम्बन्धित है। भगवान् श्री महावीर स्वामी के संघ की संचालन विधि सुव्यवस्थित थी। उनके संघ में ग्यारह गणधर, नौ गण तथा सात व्यवस्थापद थे। संघ की शिक्षा, १. "धम्मतित्थयरे जिणे"-समवायांग-१।२; २. नन्दीसूत्र, पट्टावली -१।१८-१९; ३. उत्तराध्ययन -२३।२३; ४. (क) भगवतो महावीरस्स
नव गणा होत्था। -ठाणं-९।१३, सूत्र ६८० (ख) आयरितेति वा, उवज्झातेति वा, पावतीति वा, थेरेति वा, गणीति वा, गणधरेति वा, - गणावच्छेदेति वा! -ठाणं-३।३, सूत्र १७७
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