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________________ ( १२०) विनाशिक पुद्गल दिशा, अविनाशी तुं आप। आपा आप विचारतां, मिटे पुण्य अरु पाप ॥३९१॥ बेडी लोह कनकमयी, पाप पुण्य युग जाण । दोउथी न्यारा सदा, निज सरूप पहिछाण ॥३९२॥ जुगल गति शुभ पुण्यथी, इतर पापथी जोय ।। चारुं गति निवारीए, तब पंचमगति होय ॥३९३॥ पंचमगति विण जीवकुं, सुख तिहुँ लोक मझार । चिदानंद नवि जाणजो, ए महोटो निरधार ॥३९४॥ इम विचार हिरदे करत, ज्ञान ध्यान रसलीन । निरविकल्प रस अनुभवी, विकल्पता होय छिन ॥३९५।। निरविकल्प उपयोगमें, होय समाधिरूप । अचलज्योति झलके तिहां, पावे दरस अनूप ॥३९६॥ देख दरस अद्भुत महा, काल त्रास मिट जाय । ज्ञानयोग उत्तम दिशा, सद्गुरु दीए बताय ॥३९७॥ ज्ञानालंबन दृढ ग्रही, निरालंबता भाव । चिदानंद नित आदरो, एहि ज मोक्ष उपाव ॥३९८॥ थोडासामें जाणजो, कारज रूप विचार । कहत सुणत श्रुतज्ञानका, कबहु न आवे पार ॥३९९॥
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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