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________________ (११८) ऐसा भाव निहारी नित, कीजे ज्ञान विचार । मिटे न ज्ञान विचार बिन, अंतरभाव विकार ॥३८२॥ ज्ञानरवि वैराग जस; हिरदे चंद समान । तास निकट कहो किम रहे?मिथ्या तम दुःखखान ॥३८३।। आप आपणे रूपमें, मगन ममत मल खोय । रहे निरंतर समरसी, तास बंध नवि कोय ॥३८४॥ परपरणित परसंगशु, उपजत विणसत जीव । मिट्यो मोह परभावके, अचल अबाधित शिव ॥३८५।। जैसे कंचुकत्यागथी, विणसत नहीं भुयंग । देहत्यागथी जीव पण, तैसे रहत अभंग ॥३८६॥ जो उपजे सो तुं नहीं, विणसत ते पण नांहि । छोटा मोटा तुं नहीं, समज देख दिलमांहि ॥ ३८७॥ वरणभांति तोमें नहीं, जात पात कुल रेख । राव रंक तुं है नहीं, नहीं बाबा नहीं मेख ॥३८८॥ तुं सहमें सहुथी सदा, न्यारा अलख सरूप । अकथ कथा तेरी महा, चिदानंद चिद्रूप ॥३८९॥ जनम मरण जिहां है नहीं, ईत भीत लवलेश ।। नहीं शिर आण नरिंदकी, सोही अपणा देश ॥३९०॥
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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