SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११८ ) मूरख कुलआचारकुं, जाणत धरम सदीव | वस्तुस्वभाव धरम सुधी, कहत अनुभवी जीव ||३७३॥ खेह खजानाकुं अरथ, कहत अज्ञानी जीह । कहत द्रव्य दरसावकुं, अर्थ सुज्ञानी भीह || ३७४ ॥ दंपति रतिक्रीडा प्रत्ये, कहत दुर्मति काम । कामचित्त अभिलाखकुं, कहत सुमति गुणधाम ॥ ३७५ ॥ इंद्रलोककुं कहत शिव, जे आगमहग हीण । बंध अभाव अचलगति, भाखत नित परवीन ॥ ३७६॥ इम अध्यातमपद लखी, करत साधना जेह । चिदानंद निज धर्मनो, अनुभव पावे तेह || ३७७ ॥ समयमात्र परमाद नित, धर्मसाधना मांहि । अथिर रूप संसार लख, रेनर ! करीए नांहि ॥ ३७८ ॥ छीजत छिन छिन आउखो, अंजलि जल जिम मित । कालचक्र माथे भमत, सोवत कहा अभीत || ३७९ ॥ तन धन जोवन कारिमा, संध्या राग समान । सकल पदारथ जगतमें, सुपन रूप चित्त जान ॥ ३८० ॥ मेरा मेरा मत करे, तेरा है नहीं कोय 1 चिदानंद परिवारका, मेला है दिन दोय || ३८१ ॥
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy