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जे नर वसत विदेशमें, ताकी पूछे बात । सुखी आहे अथवा दुःखी, ताथी एम कहात ॥३२८॥ उदक तत्त्व जो होय तो, कहो तास धरी नेह । सुखे सिद्ध कारज करी, वेगे आवे तेह ॥ ३२९ ॥ होय मही स्वरमें उदे, पूछे प्रश्न तिवार । तो थिर थइने भाखीए, दुःख नहि तास लगार ॥३३०॥ परवासी निज थान तजी, गया दुसरे धाम । कछु चिंता चित्त तेहनें, चलत वायु कहो आम ॥३३१।। रोग पीड तनमें महा, पावक चलत वखाण । नभ परकाश विदेशमें, मरण अवश तस जाण ॥३३२।। सूर विषम शशिमांहि संम, पगला भरतां नीत । वार तिथि इणविध करत, होवे सुण तस रीत ॥३३३॥ चंद चलत आगल धरी, डाबा पगलां चार । गमन करत तिण अवसरे, होय उदधिसुतवार ॥३३४॥ स्वर सूरजमें जीमणा, पग आगल धरे तीन । चलत गगनमें होत है, दिनकर बार प्रवीन ॥३३५॥ स्वरविचार कारज करत, सफल होय ततकाल । तत्त्वज्ञान एहना कह्या, चमत्कार चित्त भाल ॥३३६॥
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