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पूरव उत्तर दिश विषे, भानुयोग बलवंत । वंछितदायक कहत है, जे स्वरवेदी संत ॥ ३१९ ॥ ॥
विदिशि आपणी आपणी, अपना घरमें लीन । शुभ अरु इतर उभय विषे, समज लेहु परवीन ॥ ३२० ॥ चलत चंद नवि जाइए, पूरव उत्तर देश । गया न पाछा बांहुडे, अथवा लहे कलेश || ३२१ ॥ दक्षिण पश्चिम मत चलो, भानजोग में कोय । मरे न तोहु मरण सम, कष्ट अवश्य तस होय || ३२२ ॥
दूर गमनमें सर्वदा, प्रबल जोग 'चित्त धार । निकट पंथमे मध्यहु, जाणीजे सुखकार || ३२३॥ तत्व युगल शुभ हे सुधी, करत प्रश्न परियान । नाम तेहनुं चित्तमें, मही उदक मन आण || ३२४|| ऊर्ध्व दिशापति चंद है, अधो दिशापति भान । क्रूर सोम्य काजन लखी, गमन भाव पहिचान || ३२५ ॥
सुखमन चलत न कीजीए, सुधि प्रदेश प्रयाण । जावे तो जीवे नहीं, कारज हानि पिछाण ।। ३२६ ॥
तत्त्व पंचके गमनमें, होत भंग पचवीश । देशिक ग्रंथ करी सदा, वीतत जाण जोतीष || ३२७॥