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धनवंता मोगी भ्रमर, चतुर विचक्षण तेह । नीतवंत नारी गरभ, जल चरतां रहे जेह ॥३१०॥ रहे गर्भ पावक चलत, अल्प उमर ते जाण । जीवे तो दुःखीया हुवे, जन्मत माता हाण ॥३११॥ दुःखी देश भ्रमण करे, विकल चित्त बुद्धिहीण । रहे गर्भ जो वायुमें, इम जाणो परवीण ॥३१२॥ रहे गर्भ नभ चालतां, गर्भतणी होय हाण । जन्मतणो फल तत्वमें, इण ही अनुकम जाण ॥३१३॥ सुत पृथ्वी जलमें सुता, चलत प्रभंजन जाण । गर्भपतन पावक विषे, क्लीव गगन मन आन ॥३१४॥ अपना अपना स्वर विषे, है परधान विचार । तत्व पक्ष अवलोकतां, ये बीजा निरधार ॥३१५।। संक्रम अवसर आयके, प्रश्न करे जो कोय ! अथवा गर्भ रहे तदा, नाश अवश्य तस जोय ॥३१६॥ कह्या एम संक्षेपथी, गर्भतणा अधिकार । करत गमन परदेशमें, ताका कहुं विचार ॥३१७॥ दक्षण पश्चिम दिशि विषे, चंद्रजोगमें जाय । गमन रहे परदेशमें, सुख विलसे घर आय ॥३१८॥