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संग्रामादि कृत्यमें, प्रबल हुताशन होय । चंद्र सूर संग्रह विषे, फलदायक अति जोय ॥ २३८॥ जीवित जय धन लाभ फुन, मित्र अर्थ जुध रूप । गमनागमन विचारमें, जानो मही अनूप ॥ २३९ ॥ कलह शोक दुःख भय तथा, मरण कछु उतपात । संक्रमभाव समीरमें, फलदृष्टि विख्यात ॥ २४० ॥ राजनाश पावक चलत, पृच्छक नरनी हाण । दुर्भिक्ष होय महीयल विषे, रोगादिक फुनि जाण ॥२१॥ दुर्भिक्ष घोर विग्रह सुधी, देशभंग भय जाण । चलता वायु आकाश तत, चौपद हानि वखाण ॥२४२॥ महेंद्र वरुण जुग जोगमें, घनवृष्टि अति होय । राजवृद्धि परजा सुखी, समो श्रेष्ठ अति होय ॥२४॥ मही उदक दोउ विषे, चंद्रथान थिति रूप । चिदानंद फल तेहर्नु, जाणो परम अनूप ॥ २४४ ॥ मही मूल चिंता लखो, जीव वाय जल धार । तेज धातु चिंता लखो, शुभ आकाश विचार॥२४५॥ बहु पाद पृथ्वी विषे, जुगपद जल अरु वाय । अग्नि चतुःपद नभ उदे, विगत चरण कहेवाय ॥२४६॥