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तव उदक भ्र शुभ कहे, तेज मध्य फलदाय । हाण मृत्युदायक सदा, मारुत व्योम कहाय ॥२२९॥
ऊर्ध्व अधो अरु मध्य पुट, तिच्र्च्छा संक्रमरूप । पंच तत्र यह वहत है, जाणो भेद अनूप ॥ २३० ॥ ऊर्ध्व मृत्यु शांति अधो, उच्चाटण तिरिछाय । मध्य स्तंभन नभ विषे, वरजित सकल उपाय || २३१॥
जंघमही नाभी अनिल, तेज खंध जल पाय । मस्तकमें नभ जाणजो, दिये थान बताय ॥ २३२ ॥ थिर काजे परधान भू, चरमे सलिल विचार | पावक सम कारज विषे, वायु उच्चाटण धार ॥ २३३ ॥
व्योम चलत कारज सहु, करीए नांहि मीत । ध्यान जोग अभ्यासकी, धारो यामे रीत ॥ २३४ ॥
पश्चिम दक्षिण जलमही, उत्तर तेज प्रधान । पूरव वायु वखाणजो, नभ कहीए थिर थान || २३५ ॥
सिद्धि पृथ्वी जल विषे, मृत्यु अगन विचार । क्षयकारी वायु सिद्धि, नभ निष्फल चित्त धार ॥ २३६॥
धीरजथी पृथ्वी विषे, जल सिद्धि ततकाल । हाण अग्नि तायुथकी, काज निष्फल नभ भाल ॥ २३७॥