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तीन तत्र अवशेष जे, स्वरमें तास विचार |
मध्यम निष्ट कह्यो तिको, पूर्वकथित चित्त धार ॥ १४१ ॥
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राजभंग परजा दुःखी, जो नभ वहे स्वरमांहि । पडे काल वह देशमें, यामें संशय नांहि ॥ १४२ ।।
स्वर सूरजमें अग्निको. होय प्रात परवेश ।
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रोग सोगथी जन बहु, पावे अधिक क्लेश || १४३॥
काल पडे महीयल विपे, राजा चित्त नवि चेन । सूरजमें पावक चलत, एम स्वरोदय वेन ॥ १४४ ॥ नृप विग्रह कछु उपजे, अल्प वृष्टि पुन होय । सूरजमें अनिलको, चिदानंद फल जोय ॥ १४५॥ सुखमन स्वर जो ता दिवस, प्रातःसमय जो होय | जोवणहार मरे सही, छत्र भंग पुन, जोय ॥ १४६ ॥ कहूक थोडो उपजे, कहूक तेहुं नांहि । सुखमन स्वरको इन परे, फल जाणो मनमांहि । १४७॥
दुविध रीत जोवणतणी, कही वरसनी एम । त्रीजी आगल जाणजो, घरी हियडे अति प्रेम ॥ १४८॥
माघ मास सित सप्तमी, फुनि वैशाखी त्रीज । प्रातः समयको जोइए, चरस दिवसको बीज ॥१४९॥
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