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स्वरमांहि जो प्रथम ही, वहे तव आकाश । तो ते काल पिछाणीए, होय न पूरा वास ॥ १३२ ॥ इणविधथी ए जाणीए, तव स्वरनके मांहि । फल मनमें पण धारी, यामें संशय नांहि ॥ १३३॥ मधु मास सित प्रतिपदा, कर तस लगन विचारः । चलत तव स्वर तिण समे, ताको वर्ण निहार ॥१३४॥
प्रातसमे शशि स्वर विषे, मही तत्त्व जो होय । ता ते सर्व विचारी, सुखदायक अति होय || १३५ ॥ घनवृष्टि होवे घणी, समो होय श्रीकार । राजा परजाके हिये, हर्ष संतोष विचार ॥ १३६ ॥
ईत भीत उपजे नहीं, मोटा भय नवि कोय | चिदानंद इम चंदमें, क्षिति तत्र फल जोय ॥ १३७॥ चिदानंद जो चंदमें, प्रात उदक परवेश । तो वे समो सुभिक्ष अति, वर्षा देश विदेश || १३८॥
शांति पुष्टि होवे घणी, धर्मतणो अति राग । भविक हिये अति उपजे, दान अर्थ धन त्याग ॥ १३९॥
जल धरणी दोउ वहे, दिवसपति घर आय । प्रातः काल तो ते वरस, मध्यम समो कहेवाय ॥ १४० ॥