SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 20 ) स्वरमांहि जो प्रथम ही, वहे तव आकाश । तो ते काल पिछाणीए, होय न पूरा वास ॥ १३२ ॥ इणविधथी ए जाणीए, तव स्वरनके मांहि । फल मनमें पण धारी, यामें संशय नांहि ॥ १३३॥ मधु मास सित प्रतिपदा, कर तस लगन विचारः । चलत तव स्वर तिण समे, ताको वर्ण निहार ॥१३४॥ प्रातसमे शशि स्वर विषे, मही तत्त्व जो होय । ता ते सर्व विचारी, सुखदायक अति होय || १३५ ॥ घनवृष्टि होवे घणी, समो होय श्रीकार । राजा परजाके हिये, हर्ष संतोष विचार ॥ १३६ ॥ ईत भीत उपजे नहीं, मोटा भय नवि कोय | चिदानंद इम चंदमें, क्षिति तत्र फल जोय ॥ १३७॥ चिदानंद जो चंदमें, प्रात उदक परवेश । तो वे समो सुभिक्ष अति, वर्षा देश विदेश || १३८॥ शांति पुष्टि होवे घणी, धर्मतणो अति राग । भविक हिये अति उपजे, दान अर्थ धन त्याग ॥ १३९॥ जल धरणी दोउ वहे, दिवसपति घर आय । प्रातः काल तो ते वरस, मध्यम समो कहेवाय ॥ १४० ॥
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy