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वायु तिर्छा चलत है, अष्टांगुल नितमेव । धजा रूप आकार तस, जाणो इणविध भेव ॥११४॥ नासासंपुटमें चले, बाहिर नवि परकास। . सुन अहे आकार तस, स्वर युग चलत आकाश ॥११५॥ प्रथम पचास पल ‘दूसरो, चालीश बीजो त्रीश ॥ वीशरु दश पल चलत है, तत स्वरमें निशदिश ॥११६॥ घडी अढाइ पांच तत, एक एक स्वरमांहि । अहनिश इणविध चलत है, यामें संशय नांहि ॥११७॥ पंच तच स्वरमें लखे, भिन्न भिन्न जब कोय । कालसमयका ज्ञान तस, वरस दिवसका होय ॥११८॥ प्रथम मेष संक्रांतिको, व्है प्रवेश जब आय । तब ही तत्व विचारीए, स्वासा थिर ठहराय ॥११९॥ डाबा स्वरमें होय ज्यों, महीतणो परकास । उत्तम जोग वखाणीए, नीको फल हे तास ॥१२०॥ परजाकुं सुख व्हे घणो, समो होय श्रीकार । धान होय महीयल घणो, चोपदकुं अति चार ॥१२१॥ ईत भीत उपजे नहीं, जनवृद्धि पण थाय । इत्यादिक बहु श्रेष्ठ फल, सुख पामे अति राय ॥१२२॥