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जैन दर्शन कहता है कि जगत् कल्याण और आत्म-कल्याण आचार शुद्धिसे ही संभवित है । जो आचारमें शुद्ध रहे वह विचारोंमें भी सामान्यतया शुद्ध रह शकता है । जो आचारमें समृद्ध नहीं पर केवल विचारोंसे समृद्ध है, वह व्यक्ति कदाचित् अपने विचारोंका दूसरों पर असर भी कर दे फिर भी वह असर लंबे अरसे तक नहीं देखा जायेगा | विचार समृद्ध न हो तो भी चलेगा उनके अभाव के कारण जीवनको समृद्ध बनाने में कोई मुशीबत नहीं आ सकती । जीवनसिद्धि पानेके लीए एक ही शर्त है, ओ वह है आचार समृद्धि बने । आचार समृद्धि अनेकानेक लाभ है ।
जिसके पास आचार समृद्धि है उनका अंतर तो पवित्र हो जाता है परंतु असके विचार भी रागादि मलोंसे अलिप्त रहते ही है । यों विचार समृद्धि तुरन्त पायी जाती है ।
—મુનિશ્રી ચન્દ્રશેખરવિજયજી વિકાસ-પરિચય પુસ્તકમાંથી સાભાર...