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आती हे और पढाने के लिये ठीक ठीक माष्टर नहीं मिलते है. इस लिये इसके प्रबंध करने की बहुतही जरूरत है..
१२ प्राचीन पुस्तकोद्धारका मुद्दा ऐसा है कि, जिप्सको सबसे पहिले जगह देनी चाहिये. क्योंकि यह पुस्तकें अपना अपूर्व ज्ञानका अमूल्य खजाना है. अपने धर्ममें कहा है कि ज्ञान आत्माका चक्षु है. जब यह चक्षु पूरे तोरपर खुल जाता है, उसवख्त आत्माको केवल ज्ञान प्राप्त होता है, जिसकी अभिलाषा भव्य जीवोंको हर वख्त बनी रहती है. अब जो ग्रंथ मोजुद है, वह प्राचीन समयके ग्रंथोके प्रमाणमें शतांशभी नहीं है. उन ग्रंथोके कर्त्ता पूर्वाचार्योका अथाम परिश्रम पर नजर डालना चाहिये. उन महात्माओंका परिश्रम ऐसा है कि अगर अपन लोग एक एक अक्षरकी एक एक मोहर खर्च करे तोभी उनका ऋण नहीं अदा कर सकते है. दुष्कालादिक अनेक प्रकारके उपद्रवोमेंसे जो ग्रंथ बचे उनको अपने पूर्वनोनें दूर दूरके देशोमें और निर्भय स्थळोमें भंडारारूढ कीये. जब तक समय प्रतिकुळ था तब तक उन पुस्तकोंको भंडारमें बंध रखकर बचाना बहत जरूरी था. परंतु अब समय अनुकुळ है तो उन पुस्तकोंका पुनरुद्धार करके बचेबचाये ज्ञानको कायम रखना और उसकी वृद्धि कराना निहायत जरूरी है.
१३ जीर्ण मंदिरोडार-इस पंचम कालमें जिनेश्वर भगवान के साक्षात् मोजुद न होनेकी हालतमें उनके अभावमें अपन लोगोका आधार उनकी प्रतिमा-स्वरूप और उनकी वाणी पर है. उनकी वाणीको तो पूर्वाचार्योंने पुस्तकारूढ करके अपने वास्ते एक अमूल्य वारसा छोडा है, कि जिसके उद्धारके बाबतमें इस ही वख्त कह चू. काहूं. अब उन भगवानकी प्रतिमा और प्रतिमाके रहने के स्थानका पूरा इंतेजाम करना उसही मुवाफिक जरूरी और उचित है कि जैसे पुस्तकोद्धार. अपने बडे बडे राना महाराजाओंने तथा धर्मात्मा शेठसाहुकारोंने लाखों करोडों बल्कि अन्नों रुपये खर्च करके जो जो भव्य मंदिर बनाये है और उनमें सुंदर प्रतिमायें बिराजमान कराइ है और उनका बदस्तूर कायम रखना, फूट तूटकी मरम्मत करना और सेवा पूजा कराना अपनी फरज है. जिन प्रतिमा जिन सारखी होती है और जो विनय और भक्ति प्रभूकी मोजूदगीमें अपनी करनेका फर्ज है वही विनय और भक्ति उन की प्रतिमाकी अवश्य है. आज कल जो आशातनायें पूजा वगैरहकी देखी जाती है वह दिलको बहुत दुखानेवाली है. परन्तु इसके दो कारण है, एक
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