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(५८) ९ जैन साहित्यका प्रसार-जैन धर्मके अनुयायी पर नजर डालनेसे मालुम होता है कि अपनी संख्या बहुत कम है, और धर्मका प्रसारभी मंद है. तीर्थंकर भगवान् तरण तारण हुवे है. खुदने तपश्चर्या करके केवल ज्ञान प्राप्त करके सर्व कोका क्षय कीया है. और दुसरोंको सच्चा मार्ग दिखलाकर इस संसार समुद्रसें तीराया है. जब यह धर्म ऐसा सर्वोत्कृष्ठ है तो फिर उसका प्रसार जितना जिया. दा हो उतनाही भव्य प्राणीयोके वास्ते अच्छा है. उसका जियादा प्रसार होनेसें अपनकों कोई प्रकारकी हानि नहीं पहुंचेगी. बल्कि लाभही पहुंचेगा. जैसे विद्यादान देनेसे दान देनेवालेका विद्याका खजाना खाली नहीं होता है, बल्कि वृद्धि पाताहै ऐसेही इस परमोपकारी धर्मका ज्यादा प्रसार होने से इसकी उन्नति और मजबूती होती रहेगी. जैन साहित्यका प्रचार होनेसे यह बात अवश्यमेव हो सकती है, इस. लिये इसका प्रसार करना यह एक मुख्य कर्त्तव्य इस सभाका है.
१० अपने संतानोंको पडाने खातर क्रमवार पुस्तक होनेकी आवश्यकता कीतनी है सो आप साहेबोंको विदित है. इस बारेमें विद्वान् और धनवान् सद्गृह. स्थोंको अवश्य प्रयास करना उचित है.
११ जैन शिक्षण सभा-धार्मिक शिक्षण, व्यवहारिक शिक्षण, स्त्री शिक्षण और धार्मिक साहित्यका प्रसार वगैरह ऐसे विषय है कि जिनके वास्ते मजबूत पायेकी जरूरत है. वह यह है कि, एक जैन शिक्षण सभाकी स्थापना की जावे कि जिसके अंदर विद्वान् साधु मुनिराज तथा अच्छे अच्छे पढे हुवे समझदार धर्मधुरंधर श्रावक शामिल हो. और उनके मतके मुवाफिक शिक्षणादिमें सुधारा वधारा किया जावे. इस तरहपर काररवाइ करनेसे बहुत सुगमताके साथ अच्छे तोर पर सब काम हो सकता है. इस शिक्षण सभासें यहभी फायदा होगा कि कुल पाठशाळा वगैरह उस सभाकी देखरेखमें आजावेगी और उन सबकी एकसरखी रीति हो जावेगी और हर जगह बहुत जल्दि तरक्की होनेका और संभाळ होते रहनेका मोका मिलेगा. इसही विषयसें तालुक रखता हुआ हमारे विचारणीय शाळोपयोगी बुक कमीटीका मुद्दा है. आजकल कॉन्फरन्सके जरियेसे तथा उसके पहिलेसें जगह जगह पाठशाळा वगैरेह तो देखनेमें आती है. परंतु दो बातकी न्यू. नता देखनेमें आती है. एकतो पाठशाळाके लिये उपयोगी पुस्तके देखनेमें नहीं
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