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( ६७ ) इस वास्ते हर मावापको विवेकके साथ अपनी संतानोको विद्याध्ययन कराना चाहिये. जिस वरूत जैन पाठशाळा वें थी और जैन शिक्षकोके पास जैन छात्रोको विद्याभ्यास कराया जाताथा उस वरूत व्यवहारिक और धार्मिक पृथक् पृथक् विशेषण के साथ शिक्षणकी सूचना करनेकी जरूर नहीं थी. क्योंकि उस वरूपके उपदेशक इन दोनों प्रकारकी शिक्षाको साथ साथ देते थे. परंतु अब वह समथ नहीं रहा है. अब हमारे संतानोकी शिक्षा हमारे हाथमें नहीं रही है. जहां पर उनको शिक्षा मिलती है वहां अपना कुछ अवाज नहीं है. आजकलके जमाने के मुवाफिक केवल व्यवहारिक शिक्षण मिलनेसे अपने धर्मकी कुछ रक्षा नहीं हो सकती है. क्योंकि जब तक ध. मकी रुचि बच्चोंके कोमल हृदयमें नहीं जमाइजावेगी उस वख्त तक उसको धर्मका कुछ ख्याल नहीं होगा. इसलिये व्यवहारिक शिक्षाके साथ अथवा हो सकेतो उससे पहिले धर्मकी शिक्षा जरूर दी जावे. जैन धर्म गूढ और गंभीर है. इसका तत्व बहुत गौर और खोजके साथ महनत करनेसेंही मालुम हो सकता है. केवल व्यवहारिक शिक्षा पानेवाले पहिलेसेंही इसके तरफ ध्यान नहीं देते है. और उपरउपरकी कुछ कुछ बातें देखकर या सुनकर सिधे रस्तेसे विरुद्धमार्गी हो जाते है. इसलिये अपने बालकोकों व्यवहारिक शिक्षणके साथ धार्मिक शिक्षण. का देना बहुत जरूरी है.
७ स्त्री शिक्षण-प्रसंग पाकर में इस मामलेकोंभी आप सब सा. हेबोके पास जाहिर करना चाहता हूं और उमेद करता हूं कि, आप लोग इस पर ध्यान देंगे कि स्त्री शिक्षणके प्रचारसें अपने संतानका धार्मिक शिक्षण आपसें आप शुरु होजावेगा. क्योंकि पुत्र हो या पुत्री हो उसको पांच वर्षकी उमरतक तो रातदिन अपनी माता वगैरहकी सोबत रहती है. और पांच वर्षके उमरके बाद दश वर्षकी उमर तक ज्यादा हिस्सा अपने बख्तका इनही ओरतोंकी सोबतमें निकलता है. और देखकरके उसकी नकल करना प्राणी मात्रका कुदरती स्वभाव है. इनमें सब गुणोंकी जड बुनियाद स्त्री शिक्षा है, ऐसा सिद्ध होता है. इस्को पुष्ट करनेसें अपने विचारे हुवे आधेसेंभी ज्यादे काम स्वयमेव सिद्ध हो सकेंगे.
८ व्यवहारिक केलवणीमें समयानुसार राजभाषा, व्यापार कर्म और हुन्नरकळा यह विषयभी शिखाना चाहिये.
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