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श्रीचन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्र-श्रीनिरयावलिकासुत्र
कल्पावतंसिका सूत्र
पू. मुनिश्री जितरत्नसागरजी 'राजहंस'
त्रिलोक प्रकाश भगवान महावीरदेव ने साढ़े बारह वर्ष की कठोर साधना कर केवलज्ञान प्रकट किया, जिनके रोम रोम में प्राणी मात्र के कल्याण की करुण भावना का निर्झर सदा प्रवाहित था । ऐसे परमात्मा महावीरदेव ने वैशाख सुदी १० की सन्ध्या में ऋजुवालिका नदी के तट पर देवों द्वारा विरचित समवसरण में स्थानापन्न हो, देशना दी ।
महावीरदेव ने सर्वप्रथम सर्वविरति धर्म का उपदेश दिया । क्योंकि वे जगतोद्धार की भावना से अभिभावित थे । साथ ही उन्होंने अनभव किया कि प्राणी मात्र के उद्धार हेतु जैन शासन की स्थापना करना आवश्यक है । शासन का संचालन तभी ठीक चल सकता है, जब उसकी बागडोर सर्व-संग त्यागी श्रमण वर्ग के हाथ में हो | साधु मुनिराज के अभाव में जिनशासन का संचालन असम्भव है । अतः त्रिलोकगुरु महावीर देव ने सर्वप्रथम सर्वविरति का ही उपदेश किया ।
परन्तु उक्त पर्षदा में सर्वविरति ग्रहण करने की इच्छा किसी ने प्रदर्शित नहीं की । वास्तव में यह काल का ही प्रभाव था । वैसे तीर्थंकर परमात्माओं की देशना कभी निष्फल नहीं जाती । परन्तु अनंत उत्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी काल के व्यतीत होने के उपरान्त दस आश्चर्यकारक घटनाएँ घटित होती हैं । उन्हीं घटनाओं में से यह एक थी । स्वयं की प्रथम देशना निष्फल गई इसका
अहसास महावीरदेव को भी था | मगर कल्प याने आचार का पालन स्वयं * भगवान को भी करना होता है । अतः इसे अपना कल्प जानकर श्री
સૂમની શક્તિ-આગમ
MMAMMAR
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