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महावीरस्वामी ने वहाँ स्व-अल्प समय देशना दी।
दूसरे दिन सबेरे याने वैशाख सुदी ११ को महावीरदेव का आगमन अपापापुरी (पावापुरी) नगर में हुआ । देवों ने महसेन वन में तीन गढवाले एवं अशोक वृक्षादि तीर्थंकर सम्पदा से युक्त समवसरण की रचना की । फलतः भगवान ने सुवर्ण सिंहासन पर आरूढ हो, पुनः देशना फरमाई ।
प्रस्तुत परिषद में इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण बन्धु उपस्थित थे, जो यज्ञ करवाने के लिए अपापापुरी आये हुए थे । वे परमात्मा से वाद विवाद करने हेतु वहाँ उपस्थित थे । परमात्मा की बाह्य समृद्धि देख , क्षणार्ध में ही उनका गर्व दूर हो गया । प्रभु वीर ने उनकी विविध शंका कुशंकाओं का निराकरण किया । फलस्वरूप ग्यारह ब्राह्मण बंधुओं ने सैंकड़ों शिष्यों के साथ प्रभु चरणों में आत्म समर्पण कर संयम जीवन स्वीकार किया ।
तत्पश्चात् प्रभुजी ने उन ग्यारह विद्वान ब्राह्मण शिष्यों को गणधर पद से अलंकृत किया । गणधर देवों ने भगवन्त से प्रश्न किया -
''भयवं कि तत्तं ?'' प्रत्युत्तर में महावीरदेव ने सुमधुर वाणी में कहा - "उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा'' '
परिणाम स्वरूप केवल अन्तर मुहूर्त की अल्पावधि में ही गणधर देवों ने द्वादशांगी की रचना की । उसी द्वादशांगी का दूसरा नाम आगम है । शक्ति सम्पन्न गणधर महापुरुषोनें तीर्थंकर प्रभु की एकान्त हितकारी आत्मस्वरूपवाहिनी वाणी को सूत्र रूप में गूंथकर शिष्य-प्रशिष्यों के लिए ग्रहण-धारण-उपदेशादि करने में सुगमता की । प्राचीन काल से ही आगम शास्त्रों को संभालने का महद् कार्य महापुरुषों द्वारा समय समय पर होता रहा है ।
उन दिनों शास्त्र लेखन की कला से कोई अवगत नहीं था और ना ही किसी ने इसका प्रयोजन समझा था । क्योंकि मुखाग्र आगम अनमोल भेंट स्वरूप शिष्यों को प्राप्त होते रहते थे और महापुरुषों की स्मरण शक्ति असीम अदभुत थी । वे अथाह समुद्र जैसी द्वादशांगी आगम को अपने मन मस्तिष्क में धारण कर मूलसूत्र के साथ इसका नवनीत प्रायः नवागंत्क शिष्यों को पान
कराते रहते थे । . भविष्य के विषमकाल को दृष्टिगोचर कर तथा प्रभु की वाणी
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સૂક્ષ્મતામાં શકિત-આગમ
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