SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूप आगम साहित्य कहीं नष्ट न हो जाय और भविष्य में भी प्रभु की वाणी का मूल स्वरूप लोगों को निर्बाध रूप से प्राप्त होता रहे इस आशय से उसका यथोचित अब मैं संरक्षण-संशोधन करते हुए समय समय पर योग्य उपाय करते रहे । परिणामस्वरूप ढाई हजार वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत होने के बाद भी आज हम उनकी मूल वाणी का रसास्वाद करने के लिए भाग्यशाली बने हैं | आज भले ही प्राचीनकाल की तरह सागर प्रमाण वाणी नहीं हो, किंतु गागर जितनी तो अवश्य ही है। पूर्वाचार्यों ने अनुपम प्रयत्नों के माध्यम से अविच्छिन्न साहित्य के मूल को परिलक्षित कर आगम ग्रंथो की जो अनूठी सेवा की है, वह अविस्मरणीय है । इतना ही नहीं बल्कि हमारे लिए अत्यन्त उपकारक भी है । कहा जाता है कि ''विषम काले जिन बिम्ब जिनागम भवियण कु आधारा'' विषमकाल में भव्य प्राणियों का यदि कोई आधार है तो वह है जिनेश्वर की प्रतिमा और जिनेश्वर की वाणी रूप आगम ! अतः हम उन महापुरुषों का उपकार कदापि नहीं भूल सकते । महावीरदेव के शासन में वैशाख सुदि ११ के शुभ दिन भगवंत से त्रिपदी प्राप्त कर इन्द्रभूति आदि गणधर देवों ने आगम साहित्य का सृजन किया । तदनुसार ग्यारह गणधरों ने भगवान महावीर की मूल वाणी को जैसे जैसे समझा, अवगत कर आत्मसात किया और उसी रूप में अलग अलग आगम के रूप में उनका सृजन किया । आरम्भ में प्रत्येक गणधर का शिष्य समुदाय अपने गुरुदेव द्वारा रचित आगमों को ही मुखोद्गत करता था | परंतु समय के साथ एक एक कर सभी गणधरदेव स्वर्गस्थ हो गये और उन सबका शिष्य परिवार गणधर सुधर्मास्वामी के शिष्य परिवार में विलीन हो गया । फलस्वरूप वर्तमान में प्रचलित आगम साहित्य सुधर्मास्वामीजी की परम्परा का ही है | प्रथम आगम वाचना भगवान महावीर की पाट परम्परा में पाँचवे श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामीजी महाराज साहब के समय में विषम कालबल के कारण भयंकर अकाल पड़ा । लगातार बारह वर्ष तक अवर्षण, आतप और बिना अन्न पानी के लोग त्राहित्राहि पुकार उठे । गौचरी की परेशानी के कारण मुनि संघ अपनी अपनी अनुकूलतानुसार भिन्न भिन्न प्रदेशों में विहार करने लगे | उनमें से अनेक मुनिवर सुख-सुविधा को ध्यान में रख समुद्र किनारे के प्रदेश अर्थात् ઉદારતાનો ઉદ્ઘોષ-આગમ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005576
Book TitleJinagam Sharanam Mama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgamoddharak Pratishthan
PublisherAgamoddharak Pratishthan
Publication Year
Total Pages294
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy