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गई है।
इस पयन्नाजी का एकमात्र सुरीला संदेश है . 'समाधिमय मृत्यु की प्राप्ति' । समाधि का तात्पर्य है समता, संतुलन, आवेश रहित अवस्था । और मरण का मतलब होता है वियोग | जुदाई, आत्मा का प्राणों के साथ वियोग होना (जीव विचार गाथा ५०-तेहिं सह विप्पओगो जीवानं भन्नए मरण) वियोग को जरा गहराई से समझें - वियोग यानि विदाई | जुदाई | अलग हो जाना या चले जाना ।
'चले जाना’ इस दुनिया का कभी न बदलने वाला , अटल दस्तूर | सिद्धान्त है । क्या हम नहीं देखते... सुबह को जगमगाने वाला सूरज भी शाम होते होते चला जाता है । ... फूलों की वह ताजगी देने वाली मुस्कान भी सांझ ढलते ढलते चली जाती है, बिखर जाती है । चाहे बालों की कालिमा हो या चेहरे की लालिमा हो अथवा चाहे वृक्षों की हरीतिमा हो सभी को देर... सबेर चले जाना होता है।
पुण्यवानों ! आपको और हमको सभी को यहां से एक न एक दिन जाना ही है । और जब जाना तय / निश्चित ही है तो फिर जाने की तैयारी भी रखना ही पड़ेगी । संस्तारक पयन्ना में हमें यही सिखाया गया है कि हम 'संसार से कैसे विदाई लें ?' ग्रन्थ में बताया है कि साधक अपनी मृत्यु को निकट जानकर अपने जीवन व्यवहार को समेटने का प्रयत्न करें । जितना हो सके उतना परिचितों से पराङमुख होकर अन्तर्मुख बने. 'समाधि-मरण' स्वीकारने की संक्षिप्त प्रक्रिया कुछ ऐसी हो सकती हैं .
(१) ममत्व विसर्जन - साधक, स्थान, स्वजन, शिष्यगण, बहमूल्य या मूल्यहीन किसी भी प्रकार की वस्तु के उपर जो ममता / राग दशा शेष है, उसे पूरी तरह से शून्य/अल्प कर दें ।
(२) भेदविज्ञान - देह और आत्मा भिन्न है, देह विनाशी है, आत्मा अविनाशी है इस भाव को पूर्णतः आत्म साक्षात् करें ताकि विचलित होने के सैंकड़ों निमित्त आए भी | आ जाए तो भी साधक अविचल ही बना रहे ।
(३) क्षमापना - किसी भी जीव के प्रति कोई मामूली सा अपराध भी यदि हो गया हो तो उससे अंतरमन से क्षमा मांगे और यदि किसी ने हमें
વિશ્વનું દર્શન-આગમ
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