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सदियों पुरानी घटना है । कुणाल नाम का नगर था । वहां वैश्रमण नाम का राजा राज्य किया करता था । उसका एक महामंत्री था रिष्ठ । जो स्वभाव से ही मिथ्यामति था ।
संस्तारक पयन्ना
एक बार - 'ऋषभसेन' नामक जैनाचार्य भगवन्त का नगर में धूमधाम प्रवेश हुआ । आचार्यश्री का शिष्य परिवार विशाल था । आचार्यश्री के साथ उपाध्यायजी भी थे जिनका नाम था 'सिंहसेन' महाराज ।
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रिष्ठ मंत्री को आचार्य भगवंत तथा उपाध्याय भगवंत खूब खटकते थे । आखिरकार एक दिन रिष्ट मंत्री ने आचार्य श्री के साथ वाद विवाद करने की घोषणा की। आचार्यश्री ने भी ये " महत्त्वपूर्ण जवाबदारी" उपाध्यायजी को सौंपी। वाद विवाद हुआ । उपाध्यायजी ने मंत्रीश्वर को करारी शिकस्त दी । सर्वत्र उपाध्याय जी की प्रशंसा हुई। नतीजा यह हुआ कि मंत्री के अहंकार को जबरदस्त ठेस पहुँची । वह आगबबूला हो उठा । आवेश और आक्रोश में आकर उसने ध्यान मग्न उपाध्यायजी के वस्त्रों को बुरी तरह जला दिया । वस्त्र तो जले शरीर भी जलने लगा । लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि उपाध्यायजी समता नहीं जली | वे जरा भी विचलित नहीं हुए और प्रसन्न मुखमुद्रा में संसार से विदा ली । सद्गति को प्राप्त की ।
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'ऐसे कई सारे रसप्रद/रोचक प्रसंगों से भरपूर है संस्तारक पयन्ना । इसमें हमारे जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू मृत्यु की समझाईश दी
યોગનો હિમાલય-આમમ
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