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क्योंकि इसमें गुरु उपासना को परमगुरु प्राप्ति का बीज कहा गया है । बीज मतलब उपादान | जैसे अगर बीज नहीं है तो वृक्ष नहीं उग सकता । अगर दूध नहीं है तो घी नहीं मिल सकता । वैसे गुरु उपासना नहीं है तो प्रभु नहीं मिल सकते । प्रभु को पाने का मूलमार्ग है गुरु । इसीलिए किसी चिंतक ने कहा है, 'वधु का हाथ वर के हाथ में थमा दे उसे गौर महाराज कहते हैं और शिष्य का हाथ प्रभु के हाथ में थमा दे उसे गुरु महाराज कहते हैं । ऐसे और भी कई लाभों से भरपूर बहुआयामी गुरु उपासना को, सुगच्छवासियों द्वारा अवश्य अपनाना चाहिए।
★ ग्रन्थकार का इशारा 'गुरुदेव की निग्रह-कृपा प्राप्त करने से है ।' कृपा दो प्रकार की होती है : १) अनुग्रह कृपा और (२) भिग्रह-कृपा |
गुरुदेव जब शिष्य के उपर प्रसन्न होकर आशीर्वर्षा करते हैं तब कहा जाता है कि शिष्य ने अनुग्रह कृपा हासिल की । और जब गुरुदेव शिष्य पर नाराज होकर कठोर-वाणी की वर्षा करते हैं तब शिष्य यदि उन्हें सम्मान के साथ स्वीकार कर लेता है तो कहा जाता है कि शिष्य ने 'निग्रह-कृपा प्राप्त की ।
निग्रह कृपा...अनमोल है । जो इसे प्राप्त करता है ऊर्जा से भर जाता है । यह ऊर्जा शिष्य का तो विकास करती ही है औरों का भी कल्याण करती है ।
निग्रह कृपा का सशक्त उदाहरण है चंडरुद्राचार्यजी के शिष्यरत्न | जो अपने गुरुदेव को कंधे पर उठाकर असमतोल / ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चल रहे थे । अंधेरा था, इसलिए गुरुदेव को तकलीफ हो रही थी उन्होनें शिष्य को न सिर्फ फटकारा बल्कि प्रताड़ित भी किया । लेकिन, शिष्य ने हंसते-मुंह से उनकी-प्रताड़ना को सहन किया । फलतः उन्हें निग्रह-कृपा प्राप्त हुई।
इस निग्रह-कृपा की शक्ति से शिष्य ने भी केवलज्ञान पाया और गुरुदेव को भी केवलज्ञान प्राप्त करवाया ।
इसी तरह मृगावतीजी ने भी चंदनबालाजी की निग्रह-कृपा प्राप्त की थी।
तात्पर्य इतना ही है कि, यदि सुगच्छवासी मुनिराज गुरुदेव के कटुक्चन फटकार को भी खुशी से सूनें, तो वे अति ऊर्जस्वी बन सकते हैं।
★ जिस गच्छ में गुरु-शिष्य नियमित आलोचना लें, उसे सुगच्छ कहते हैं |
'आलोचना' के माध्यम से शास्त्रकार भगवान् का निर्देश है' जीवन में सच्चाई अपनाने का । धर्म की शुरुआत ही तभी होती है जब हम 'सत्य का
स्वीकार करते हैं।
' ફલેશનો ફાળ-આગમ
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