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एक बात और भी विचारणीय है कि संस्कारों का शिक्षण पूर्ण आत्मीयता के साथ दिया जाए । अन्यथा शिक्षण तो दुकानदार भी अपने नौकर को देता है, लेकिन वह शिक्षण उपयोगिता के आधार पर होता है यदि नौकर की उपयोगिता
अंश भर भी कमी आ जाए तो दुकानदार उसे 'नौकरी से दूर कर देता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं है । ग्रंथ में कहा गया कि गुरुदेव अपने शिष्य को पुत्र की तरह मानकर बड़े वात्सल्य के साथ ज्ञान / संस्कार दान करें ।
यही बात उत्तराध्ययन सूत्र में भी कही गई है, "सीस्सेण पुत्तेण समं विभत्ता' ( शिष्य को पुत्र की तरह (मानकर ) संस्करण करें। ऐसा करने से गुरु के ज्ञान का अनुबंध बढ़ता है और शिष्य में ज्ञान के साथ समर्पण की भी वृद्धि होती है । ★ 'जिस गच्छ में पृच्छना प्रतिपृच्छना' बरकरार हो, उसे सुगच्छ कहते हैं । 'गुरुदेव' को सिर्फ शिक्षण ही नहीं देना है इसके साथ साथ पृच्छनाप्रतिपृच्छना सरल भाषा में कहें तो संवादिता के लिए योग्य वातावरण भी तैयार करना होगा । हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि डॉक्टर भी एक बार दवाई देने के बाद हर पेशेन्ट / मरीज से दिन में दो बार (राउंड पर) मिलने के लिए आता है । वह इसीलिए कि जो दवाई मरीज को दी गई है वह बराबर असर दिखा रही है कि निष्प्रभावी हो रही है । उसी तरह गुरुदेव भी शिक्षण देने के बाद शिष्य को तराशे कि यह शिक्षण शिष्य के अनुरूप है या नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि भय के कारण शिष्य अपनी समस्या बता नहीं पा रहा है ? कुल मिलाकर हर हालत में गुरुदेव शिष्य के साथ 'संवादिता' स्थापित करे । संवादिता के अभाव में शिष्य में घुटन और घबराहट बढ़ने की पूरी संभावना है कई बार तो बड़ी बड़ी गलतफहमियां शिष्य और गुरुदेव के बीच हो जाती है और नतीजा यह आता है कि जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव भी आ जाते हैं । इसलिए सुगच्छ में 'पृच्छना प्रतिपृच्छना' अनिवार्य तत्त्व है । ★ 'जिस गच्छ में आचार्य श्री अपने शिष्यों के उपर बिना हिचकिचाहट के ताड़ना भी कर सके, उसे सुगच्छ कहते हैं ।'
शिष्य यदि कोई भूल करे तो गुरु का कर्तव्य है कि किसी भी तरह शिष्य की भूल को सुधारे । यदि पुचकारने, डराने, धमकाने से भी शिष्य में सुधार नहीं दिखाई तो फिर मन को फौलादी बनाकर भी शिष्य को फटकारे ताड़ना करे । इसी बात को 'बृहत् कल्प भाष्य में इस प्रकार कहा गया है ।
યોગનું વિજ્ઞાન-આગમ
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