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सूर्यप्रज्ञप्ति , चन्द्रप्रज्ञप्ति और निरयावलिका सूत्र आते हैं जिनका मैं आपको परिचय करवाने के लिए आज यहाँ उपस्थित हुआ हूँ ।
- सूर्यप्रज्ञप्ति का प्राकृत नाम सूर पन्नति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का प्राकृत नाम चंदपन्नति है।
सूरप्रज्ञप्ति सूत्र पंचमांग विवाहपन्नति भगवतीजी का उपांग है एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति सप्तमांग उपासकदशांग सूत्र का उपांग माना गया है ।
यूँ अगर देखा जाय तो दोनों उपांग में साम्यता है । फिर भी दोनों उपांग अलग अलग अंग सूत्र से निर्मित हुए हैं कारण कि सभी प्रकार की साम्यता होने के बाद भी सूर्य चन्द्र की गति, इन्द्रों के विमान, समृद्धि आदि पदार्थों में अन्तर हैं ।
इन उपांग सूत्रों को कालिकश्रुत माना गया है । कालिक श्रुत याने कालग्रहण लेकर योगोद्ववहन करने के द्वारा पढे जाते हों । तथा जिन सूत्रों को काल के समय में न पढ़े जाते हो वे कालिकश्रुत कहलाते हैं ।
। इन दोनों सूत्रों के विभाग को प्राभृत कहा गया है । प्राभृत याने सम्पूर्ण सूत्र का कुछ विभाग । उदाहरण के तौर पर सूर्यप्रज्ञप्ति के २० प्राभृत है । इसमें प्रथम प्राभृत के भी ८ प्राभृत प्राभृत हैं याने पेटा विभाग हैं ।
___ इन दोनों सूत्रों में ज्योतिष्कचक्र याने खगोलविद्या विषयक जानकारियाँ उपलब्ध है । सूर्य और चन्द्र की गति याने परिभ्रमण से सम्बन्धित विषय पर अधिक प्रकाश डाला गया है ।
इन सूत्रों की नियुक्ति श्रुतकेवली भगवान श्री भद्रबाहुस्वामी ने की थी किन्तु दुर्भाग्य हमारा कि कालवल से वह कालकवलित हो गई । अतः पूज्य टीकाकार श्री मलयगिरिजी म.सा. ने मूलसूत्रों पर से ही इन सूत्रों की टीका बनाई है जो कि आज पर्यंत विद्यमान है ।
इन उपांगों के प्रथम प्राभृत में टीकाकार महापुरुष ने भगवान महावीरदेव, श्रुतकेवली एवं जिन प्रवचन को नमस्कार किया है । एवं नियुक्ति के विच्छेद हो जाने से मूल सूत्रों की ही व्याख्या करने का उल्लेख किया है ।
यूँ अगर देखा जाय तो इन सूत्रों की टीका भी बहुत ज्यादा विस्तृत नहीं है । यही कारण हैं कि इन टीकाओं में टीकाकार पूज्य मलयगिरिजी
महाराजा ने विस्तृत विवेचना के लिए ओपपातिक सूत्र देखने का
અસ્તિવનો આદર-આગમ
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