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हुई । फिर भी कितना ही श्रुतज्ञान नष्ट हो गया । जिनागम का लहराता सिन्धु मात्र बिन्दु में समाहित होकर रह गया । उपरोक्त छह आगम वाचनाएँ भी भगवान महावीर देव के निर्वाण के पश्चात् लगभग १००० वर्ष में सम्पन्न हुई । उसके बाद के १५४१ वर्ष का जैन शासन का इतिहास अज्ञात है और आगम वाचनाओं का इतिहास कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । फिर भी जिन शासन रत्नगर्भा जो ठहरा ! अतः समय पर किसी न किसी महा आगमधर की उसे भेंट अवश्य प्राप्त हुई है । वर्तमान युग में जैन शासन के महा विद्वान धर्मधुरन्धर सूरिशेखर श्री आनंदसागरसूरिश्वरजी महाराज साहब ने वर्षों पुराने श्रमणसंघ के आद्य कर्तव्य रूप आगम रक्षा के प्रश्न को पुनः नये सिरे से उपस्थित कर जैन जगत को जैन शासन की वास्तविकता का अहसास करवाकर कुंभकर्णीय निद्रा से जगाया और उसे अपने कर्तव्य के प्रति सजग किया । जिनके रोम रोम में जिनागम उद्धार की भावना बसी थी ऐसे आनंदसागरसूरिजी महाराज ने सूर्यपुरी (सुरत) में अपने प्रवचन में कहा -
''भाग्यशालियों..! प्राचीन काल में बारह वर्षीय भयंकर अकाल, विभिन्न राज्य क्रान्तियाँ तथा धर्मांधता के कारण उत्पन्न अत्याचार के ज्वालामुखी से आगम साहित्य को सुरक्षित रखने हेतु तत्कालीन युगप्रधान आचार्य भगवन्तों ने भगीरथ परिश्रम किये थे । साथ ही प्राचीन काल में छह आगम वाचनाएँ कर महावीर देव की दिव्य वाणी को मूल स्वरूप में सुरक्षित रखा है । परंतु वर्तमानकाल में ब्रिटिश शासन है । न कहीं अकाल है ना ही कोई उपद्रव ग्रस्त है । ठीक वैसे ही धर्मान्धता के कहीं दर्शन भी नहीं होते । फिर भी जैन शासन और अग्रगण्य श्रमणसंघ में अंगुली के पोरोंपर गिन सकें इतने भी आगम अभ्यासी विद्वान मुनि नहीं है और जो हैं वे भी अपने उत्तराधिकायों को विरासत रूप में जिनागम दे सकें ऐसी स्थिति में नहीं है । कारण बीच के संघर्षमय समय के दौरान गम्भीर कारणों से आगम ग्रन्थों में पठन पाठन की पद्धति ही नष्ट प्रायः हो गयी थी । साथ ही योग्य परिणत श्रमणों के हाथ आगम ग्रन्थ नहीं लगने की परिस्थिति, ग्रंथ भंडारों के कथित ठेकेदारों की अनुदारता, भीषण अकाल या फिर पाश्चिमात्य संस्कार या शिक्षण के कारण जनता में फैली वैचारिक क्रान्ति के कारण से आगम ग्रन्थों को निःसंदेह अत्यन्त हानि पहुँची
है। इन सारी परिस्थितियों की विकरालता का सूक्ष्मावलोकन करने के On उपरांत मैं इस निर्णय पर आया हूँ कि योग्य श्रमणों को आगम
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વાત્સલ્યના વામણા-આગમ
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