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समय में पट्टधर आचार्य श्री वज्रसेनसूरि से कहा था -"मेरे स्वर्गवास के बाद भयंकर अकाल होगा । परन्तु जिस दिन तुम्हें एक लाख सुवर्णमुद्रा कीमतवाली भात की हांडी का दान प्राप्त हो उसके दूसरे दिन सुकाल होगा ।''
___ आर्यवज्रस्वामी के कथनानुसार वीर निर्वाण संवत् ५८० में सर्वत्र अकाल पड़ा । अवर्षण से उत्पन्न भीषण परिस्थिति की चेपट में पूरा उत्तर भारत आ गया था । फलतः बहुत सारे गण कुल और वाचक वंश काल कवलित हो गये । पुनः आगम की अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रखने की समस्या खड़ी हो गई । श्रमणों की संख्या अत्यालप हो गयी थी । उन दिनों संघ में वाचनाचार्य थे आचार्य श्री नंदिलसूरिजी, युगप्रधान आचार्य थे आर्यरक्षितसूरिजी तथा गणाचार्य थे आचार्य श्री वज्रसेनसूरिजी महाराज साहब ।
वीर निर्वाण संवत् ५८० के भीषण अकाल ने अनेक ज्ञानी और महासमर्थ महापुरुषों को ग्रस लिया था । सर्वत्र निराशा का वातावरण व्याप्त था | युगप्रधान आचार्यश्री आर्यरक्षितसूरिजी महाराज साहब की चिंता का पारावार न था ।
वे उद्विग्न हो, चिंतन में खो गये, "उफ्...! वीतराग की वाणी रूप आगम साहित्य सम्भालने और सुरक्षित रखने में हम असमर्थ हो रहे हैं । यह विधि की विडम्बना नहीं तो और क्या है ...? आगमों के संरक्षण हेतु प्राचीन काल में तीन वाचनाएँ हुई हैं । जिनागम के संकलन हेतु अथक प्रयास होने के अनन्तर भी जिनागम सम्पूर्ण रूप से संरक्षित नहीं हो पा रहे हैं । निःसंदेह उसमें काल बल का ही प्रभाव है । जिनागम में द्रव्य, चरणकरण, गणित और धर्मकथा रूपी चार अनुयोगों का समावेश हैं | जबकि ऐसे गहन और गम्भीर अर्थ को भली भांति आत्मसात कर सकें ऐसे महामेधावी श्रमण भी तो नगण्य ही हैं । इस तरह श्री आर्यरक्षितसूरिजी ने जिनागम की विरासत को सुरक्षित रखने का गम्भीर विचार कर समकालीन अन्य प्रभावक आचार्य भगवन्त की अनुमति से , संपूर्ण आगम साहित्य का चार भागों में वर्गीकरण किया । फलस्वरूप अल्प बुद्धिवाले श्रमण को भी विषय अनुसंधान के अनुसार मुखपाठ रखने में अधिकाधिक सुविधा हो सकें।
परम श्रद्धेय आर्यरक्षितसूरिजी महाराज साहब ने आगम साहित्य को निम्नांकित चार भागों में विभाजित किया था ।
१. द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद (बारहवाँ अंग)
સંવરનું સરોવર-આગમ
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