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आपात्काल में अनेकों जिन मंदिर एवं आगमों के पठन-पाठन की व्यवस्था को प्रचंड आघात लगा | सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गई । क्योंकि जैन मुनियों का केंद्र स्थान पाटलीपुत्र था और वहाँ का शासन एक ऐसे धर्मांध व्यक्ति के हाथ में था, जो जैन धर्म द्वेष्टा हो , क्रूर और अत्याचारी था ।
एक सामान्य सेनापति मगध जैसे पवित्र देश में धर्मांधता के कारण उत्पात मचा, निष्कारण नर-संहार कर खून की नदियाँ बहाये, यह कलिंगाधिपति सम्राट भिक्खराय खारवेल को योग्य न लगा | उसने तत्क्षण मगधदेश की राजधानी पाटलीपुत्र पर चढ़ाई की । घमासान युद्ध हुआ । सम्राट खारवेल के सामने पुष्पमित्र अधिक समय तक टिक न पाया । सम्राट ने उसे पराजित कर मगधदेश से भगा दिया ।
कलिंग देश में आने के बाद मुनियों का नियमित अभ्यास और पठन पाठन एवं आगम अध्ययन प्रवृत्ति ... परिपाटी अस्त व्यस्त हो जाने की स्थिति में महामेघवाहन सम्राट खारवेलने तत्कालीन समर्थ आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्री सुस्थितसूरिजी एवं आचार्यदेव श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी महाराज साहब से आगम वाचना प्रदान कर एकादश अंगों का संकलन संशोधन करने का सानुरोध किया । आचार्यदेव ने सम्राट खारवेल के अनुरोध को स्वीकार कर शQजयावतार तीर्थ स्वरूप कुमारगिरि पर बृहद् श्रमण सम्मेलन आयोजित कर तीसरी आगम वाचना करवायी।
प्रस्तुत वाचना में ग्यारह अंग और दस पूर्व के पाठों को व्यवस्थित किया गया । आचार्य श्री बलिस्सहसूरिजी ने इसी वाचना के समय 'विद्याप्रवाद" नामक पूर्व में से 'अंगविद्या' आदि शास्त्रों का उद्धार किया था ।
तत्कालीन मुनि सम्मेलन में जिन कल्प की तुलना करने वाले आचार्य श्री महागिरि के शिष्य प्रशिष्य आचार्य श्री बलिस्सहसूरिजी , देवाचार्य आचार्य श्री धर्मसेन आदि २०० श्रमण वृंद, आचार्य श्री सुस्थितसूरिजी वगैरे स्थविर कल्पी ३०० श्रमण, आर्या पाइणी आदि ३०० साध्वियाँ, सीवंद चूर्णक सेलग आदि ७०० श्रावक तथा पूर्णमित्ता आदि ७०० श्राविकाएँ उपस्थित थी । यह वाचना संवत् ३०० से ३३० के लगभग होने की सम्भावना है । चौथी आगम वाचना ।
अन्तिम दस पूर्वधर महर्षि आर्यवज्रस्वामी ने अपने अंतिम
तृप्तिjdx-मागम
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