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कर तथा जिनवाणी को मुखपाठ रखनेवाले मुनिवरों की दिन ब दिन घटती संख्या अनुभव कर आचार्य श्री आर्यसुहस्तिसूरिजी महाराज साहब से नम्र निवेदन किया
___ प्रभु ...! आप समर्थ हैं । अतः जिनागमों को सुरक्षित रखने हेतु पाटलीपुत्र में श्रमण संघ को पुनः एकत्रित कर दूसरी आगम वाचना का आयोजन करेंगे तो जैन शासन पर बड़ा उपकार होगा ।''
तदनुसार सम्राट सम्प्रति की विनंति को मान्य कर आचार्य श्री आर्यसुहस्तिसूरि ने पाटलीपुत्र में श्रमणसंघ को एकत्रित कर दूसरी आगम वाचना सम्पन्न की । सम्राट सम्प्रति के मन में जैन धर्म के प्रति तीव्र अनुराग होने से उन्होंने प्रभु वाणी की महत्ता फैलाने के उद्देश्य से आगम वाचना करवाई । साथ ही दूर-सुदूर के प्रदेशों से विहार करते श्रमण समुदाय के लिए आगमों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था की , इतना ही नहीं बल्कि उसे सुगम और सरल बनाने के सफल प्रयास भी किए।
अलबत्त , दूसरी वाचना का सही समय (कालखण्ड) उपलब्ध नहीं है | किंतु दूसरी वाचना के प्रेरक और नेता आचार्य श्री आर्यसुहस्तिसूरिजी महाराज साहब का जन्म वीर निर्वाण संवत् १९१ में हुआ था । आपने वीर संवत् २१५ में दीक्षा ग्रहण की थी और वीर संवत् २४५ में आप युग प्रधान पद से अलंकृत हुए थे । आपका स्वर्गवास वीर संवत् २९१ में हुआ । अतः ऐसी मान्यता है कि दूसरी वाचना वीर निर्वाण संवत् २४५ से २९१ के बीच किसी समय सम्पन्न हुयी होगी । तीसरी आगम वाचना ।
सम्राट सम्प्रति के स्वर्गवास पश्चात् अल्पावधि में ही राज्य क्रान्ति हुई । मौर्यवंशी राजाओं के सेनापति पुष्पमित्र ने राजद्रोह कर पाटलीपुत्र (आज का पटना शहर) की राजगादी हथिया ली और उसने स्वयं को राजा घोषित कर दिया । पुष्पमित्र एक धर्मांध राजा था । उसने अपने कार्यकाल में जैन एवं बौद्ध श्रमणों का सार्वजनिक रूप से शिरच्छेद करवा कर भयंकर अमानुषिक अत्याचार किए थे। जैन मुनियों के लिए प्राण बचाना भी मुश्किल हो गया । परिणामस्वरूप जैन मुनियों ने मगध का परित्याग कर कलिंग देश की ओर विहार किया । उन दिनों कलिंग देश में महामेघवाहन खारवेल का राज्य था । वह जैन राजा
था । अतः जैन श्रमणों ने कलिंग देश में शरण ग्रहण की ।
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ઉદારતાની ધૂરા-આગમ
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