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भारत वर्ष की विशालता
(संकीर्त्तन भवन-वृंदावन प्रकाशित " प्राचीनभारत" पुस्तककी प्रस्तावना महामनीषी विद्रसूर्धन्य प्रभुदत्त ब्रह्मचारीने लिखीथी, उसको व्यवस्थितकर जिज्ञासुओंके हितार्थ साभार उद्धृतकर प्रकाशित किया है. सं०)
जब से लोगों ने विशाल भाव को छोड़ दिया है, क्षुद्र भाव को अपना लिया है, तभी से इस क्षुद्रता की ओर जा रहे हैं। आज
कुछ दिनों पहिले ही चीन-जापान बालि सुमात्रा, अफगानिस्तान ये सब भारत के ही अन माने जाते थे ।
६४ देवी पीठों में से एक महादेवी पीठ चीन में थी । देवी भागवत तथा सभी में उल्लेख है। ज्यों-ज्यों हम संकुचित होते गये । दस्यु म्लेच्छ लोग वैदिक वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध होते गये त्यों त्यो वैदिक आर्य सनातम व धर्म के साथ भारतवर्ष की सीमा का मी संकोच होने लगा अफगानिस्तान, काबुल, कन्धार तो अब तक भारत में थे । पुरानी बात जाने दो। हमारे सामने तक जब हम पढते थे, तब भारतवर्ष का मानचित्र विशाल था । बिलूचिस्तान, सिंध, प्रज्ञा, रंगून, लङ्का सब भारत में ही थे । हम पढ़ा करते थे, भारत में इसने देशी राज्य हैं, जयपुर, जोधपुर, अलवर, बीकानेर आदि आदि, और नेपाल तथा भूटान भारत के दो स्वतन्त्र राज्य है ।
आज लक्ष पृथक् हो गया वह अपने को भारत का अज्ञमानता ही नहीं तामिल arat को स्कोड़ रहा है।
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देखते देखते पाकिस्तान बनगया, वह भारत को अपना शत्रु ही समझता है । नेपाल, भूटान वाले अपने को विदेशी कहते हैं, कल तक जो तिब्बत हमारे संरक्षित देश था जिसका शासन एक प्रकार से हमारे ही mata था। उसे चीन ने हड़प लिया और चीन भारत को शत्रु देश समझता है ।
यही नहीं तामिल आदि प्रान्त अपने को अनार्य मानकर विद्वेष फैला रहे हैं, वे सात समुद्र पार की अंग्रेजी भाषा को तो अपना रहे है, किन्तु अपने घर की हिन्दी भाषा से देख कर रहे हैं । यह सब भारत की सीमा को न समझने और हमारी महान् संस्कृति प्राचीन परम्परा को न समझने का ह्रीं दुष्परिणाम है ।
समस्त ज्ञान का भण्डार पुराण ही है, जब से पुराणों का पठन-पाठन बन्द हुआ है, तब से हममें अज्ञान छा गया है ।
इन विदेशी इतिहास लेखकों की दृष्टि बहुत ही पक्षपात पूर्ण और क्षुद्र है । वे ५ हजार वर्ष से आगे जाते ही नहीं । वे ५ हज़ार वर्ष से परेकाल को प्राग ऐतिहासिक काल कहकर टाल
देते है ।
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