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इसका खुलासा इस प्रकार है कि एक अब जैन सिद्धान्तानुसार पृथ्वी का कुछ स्थान में जो कि बिलकुल चौरस है उस स्वरूप वर्णन किया जाता है। स्थान पर रक्खी हुई पत्थर की गोली जहां इस लोक (देखा परिशिष्ट “ख”) मध्यकी तहां ठहरी हुई है। इधर उधरको गमन लोक के बीच में एक लक्ष चालीस सोजन नहीं करती क्योंकि चारों तरफ के परमाणु ऊंचा पर्वत है। उसको समान रूप से आकर्षण कर रहे हैं। सोमवार- बारे
थोडी देर बाद पत्थर की गोली की जम्बद्वीप (देखा परिशिष्ट "ग") के विकास पश्चिम दिशा तरफ की दो मन मिट्टी खोद बिच में है। कर पश्चिम की तरफ की जमीन ढलवां नीची कर दी और वही मिट्टी उस गोली की पूर्व
जम्बूद्वीप को खाइ की तरह लवणसमुद्र दिशा में रखकर पूर्व की ओर जमीन ऊंची
बेढे हैं और लवणसमुद्र के चारों तरफ करदी । ऐसी हालत में पूर्व की ओर पृथ्वी
धातकी खण्डद्वीप इस ही प्रकार इस मध्यलोक के अधिक परमाणु हुए और पश्चिम की
(देखा परिशिष्ट) में एक दूसरेको बेढे हुए ओर कम परमाणु हुए । अधिक परमाणुओं
असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । अन्त में स्वयं भूरमण की आकर्षण शक्ति अधिक होती है और
समुद्र है। कम परमाणुओं की आकर्षण शक्ति कम चारों कोनों में ही है। होती है।
जम्बूद्वीपमें छह कुलाचल है, जिससे
जंबूद्वीपके सात भाग हो गये है । दक्षिण इस लिये वह गोली अधिक आकर्षण भागको भरतक्षेत्र (देखा परिशिष्ट “ड़") शक्ति से खिंच कर पूर्व की ओर जानी कहते हैं । भरतक्षेत्र के बीचमें विजयाद्ध पर्वत चाहिये, परन्तु इससे विपरीत वह गोली पड़ा हुआ हैं । पश्चिमकी ओर जाती है। इससे सिद्ध होता म वंत पर्वतसे महागंगा और महा सिन्धु है कि पृथिवी में आकर्षण शक्ति नहीं है। हीनदी निकली कि विजयाद्ध में प्रवेश करके इस लिये हेतु असिद्ध नामक हेत्वाभास
पूर्व और पश्चिम समुद्र में चली गई । इस है। और इस ही कारण पृथ्वी की गति
प्रकार भरतक्षेत्रके छह खण्ड हो गये हैं, सिद्ध करने में
जिसमें से पांचको म्लेच्छखड और छठे को असमर्थ है । इस प्रकार उपर्युक्त युक्तियों से भले प्रकार सिद्ध होता
आर्यखंड (देखा परिशिष्ट " च") कहते हैं होता कि न तो पृथ्वी गेंद के समान गोल
आर्य खडके पूर्व में महागंगा उत्तरमें ही है और सूर्य के चारों तरफ घूमती है। विजयाद्ध पश्चिम में महांसिन्धु और दक्षिण में किन्तु जैन सिद्धांत अनुसार एक राजू लबी लवणसमुद्ग है, आयलेन्ट में एक उपसागर और एक राजु चौड़ी समचतुरन है॥ है जो कालक्रमसे प्रायः समस्त आर्य संडमें
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