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________________ _ और यदि हेतु में दक्षिण उत्तर की है और ज्यों ज्यों हम ज्यादा ऊंचे खडे होकर रेखा इष्ट है, तो हेतु प्रसिद्ध नामक हेत्वाभास देखते हैं त्यों त्यों ज्यादा ज्यादा दूरी है । क्योंकि पृथ्वी के चारों तरफ घूमकर पर यही बात होती है इसका कारण विना मुड़े कुछ काल में उस ही स्थानपर यह है कि हमारी निगाहसे एक सीधी रेखा जहां से कि उन्होंने चलना प्रारंभ किया था (Perpendi Cualr line) उस स्थान पर पहुंचने वाले सब महाशय पूर्व से पश्चिम पहुंचती है जहां कि जमीन आस्मान एक में को ही गये हैं, दक्षिण से उत्तर को आज मिलते हये दिखाई देते है और उस से तक कोई नहीं गया । इस लिये यह हेतु ज्यादा दूर न देख सकने का यह कारण है प्रसिद्ध हेत्वाभास है। कि जमीन का गेंद समान गोल (Curyed ___ हमारी सभ्य मोण्डली पृथ्वी के गेंद Portion) हमारी निगाह के आडे · आकर समान गोल हाने में तीसरा अनुमान इस उससे ज्यादा दूर हमको देखने नहीं देता प्रकार देती है कि और ज्यों ज्यों हम ऊंचे चढ़ते जाते हैं त्यों पृथ्वी गेंद के समान गोल है क्योंकि त्यों पृथ्वी की गेंद समान गोलापन के साथ सूर्य के चारे। ओर घूमती घमती जब वह हमारी निगाहकी समकोण बनानेवाली रेखा सूर्य और चन्द्रमा के वीचा वीच आ जाती ज्यादा दूर बढती जाती है और हम ज्यादा है तब ही उसकी छाया चन्द्रमा पर पडनेसे दूर तक देख सकते हैं । चन्द्र ग्रहण होता है और यह छाया गोल यदि पृथ्वी में गेंद के समान उभरी होती है सेा यह हेतु भी व्यभिचारी है। हुई गोलाई नहीं होती तो मैंदानमें या ऊंचे क्योंकि सूर्य चन्द्र ओर पृथ्वी के बीचमें स्थानमें दोनों जगहों से हम एक सा ही गोलाकार कृष्णवर्ण राहु और केतु के विमान देख सकते सो यह हेतु भी व्यभिचारी है आ जाने से भी ग्रहण में गोल छाया पड ज्योकि समद में चलते हुए जहाज में सकती है। यही बात होती है । यदि दुर्जन तोष न्याय चौथा अनुमान पृथ्वी के गेंद समान से जमीन की सतह गेंद के समान थोडे गोल हाने में यह दिया जाता है कि पृथ्वी काल तक उभरी हुई मान लें तो समुद्र के गेंदके समान गोल है क्योंकि जब हम जल की सतह को कदापि उभरी हुई गोल मैदान में खड़े होते हैं तब कुछ दूर के नहीं मान शकते क्योंकि जल की सतह बाद जमीन और आस्मान हमारे चारों सर्व एकसी चपटी (Flat) होती है उभरी और घृत रूप में मिलता हुआ दिखलाई हुई (Curved) नहीं इस कारण इस हेतु देता है परन्तु जब हम मैदान से कुछ ऊंचाई की विपक्ष समुद्र में भी प्राप्ति होने से यह पर खड़े हो कर देखते है तब मैदान से हेतु अनैकान्तिक अर्थात् व्यभिचारी हेत्वाकुछ ज्यादा दूरी पर यही बात दिखलाई देती भास है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005570
Book TitleJambudwip Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
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