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भूगोल मीमांसा .
लेखक पं. गोपालदासजी वरैया
मुरैना (ग्वालीयर) [यह लेख वीर. नि. सं. २४३८ वि. सं. १९६८ ई १९१२ में ट्रेकट नं. १३ के रूपमें श्री चंद्रसेन जैन वैद्य, मंत्री श्री जैनतत्व प्रकाशिनी सभा इटावा से प्रकाशित हुआ था।
__जिज्ञासुओं के लिये अति उपयोगी समझकर यह लेख साभार उद्धृतकर यहाँ प्रस्तुत किया है सं.]
जिससे पृथ्वी के आकारादिकका ज्ञान वे महाशय विलायती जागरफर्सके सिद्धाहो उस विद्याको जागरफी कहते हैं। न्तोको ब्रह्मवाक्य और प्राचीन ऋषियों के
पाश्चात्य विद्वानोंने पृथ्वीको गेंदके समान सिद्धान्त को कपोल कल्पना मानने लगे है। गोल मानी है, तथा पृथ्वी में दो प्रकार की
यदि वास्तव में देखा जाय तो यह अप.
राध उन विद्यार्थियों का बिलकुल नहीं है गति मानी है।
क्योकि उनके माता-पिताओं ने जो कुछ चौवीस घंटे में पृथ्वी अपनी कीलीपर
उनको पढाया वही उन्हों ने रटा। यदि कुछ एक बार घूम आती है, जिससे रात दिन
दोष कहा जाय तो उनके माता पिताओं का होते है तथा ३६५ दिनमें एक बार सूर्यकी परिक्रमा कर आती है, जिससे ३६५ दिनका को इंग्लिश विद्या के साथ २ धर्म विद्या
कहा जा सकता है कि जिन्होने अपने बालकों एक सौर्य वर्ष होता है।
का अभ्यास नहीं कराया ।। जैन आचार्यों ने त्रिलोकसारादिक परन्तु जरा आगे बढकर और विचार प्रन्थोमें बिलकुल इसके विपरीत कहा है। किया जाय तो उनके मातापिताओं का भी
आजकल इस भारतवर्ष में पाश्चात्य' कुछ दोष नहीं है, क्योंकि इंग्लिश विद्या के विद्याका प्रचार बहुत जोर शोर से हो रहा है। साथ २ धम विद्या के अभ्यास कराने का जिन महाशयों ने बाल्यावस्था से ही शुष्क जब क्या, आज तक भी कोई, साधन नहीं है। इंग्लिश विद्याका ही अभ्यास किया है उनके पृथ्वी के सबध में जैन सिद्धान्त और दिमाग में पाश्चात्य जागरफी सिद्धान्त ऐसा पाश्चात्य सिद्धान्त में मुख्य अन्तर दो हैं। उस गया है कि
अर्थात् पाश्चात्य पृथ्वी को गेंद के समान
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